धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
ऐसे ही हम शब्दों को पकड़ लेते हैं। शब्दों के यांत्रिक रूप में, शब्दों के उपकरण में जिस तरफ इशारा था--जिस संगीत की तरफ, जिस सत्य की तरफ, उस पर हमारा खयाल ही नहीं जाता। और फिर इन शब्दों की ही व्याख्या मंप हम लग जाते हैं। शब्दों की व्याख्या करने वाले मन को ही मैं शास्त्रीय मन कहता हूँ। वह चाहे गीता के शब्दों की व्याख्या करता हो या मेरे शब्दों की। यही शास्त्रीय बुद्धि है यह शब्दों को पकड़ लेने वाली, शब्दों पर जीने वाली, शब्दों पर सोचने वाली। इस तरह का मनुष्य कभी सत्य के निकट नहीं पहुँच पाता।
क्योंकि शब्दों से सत्य का क्या लेना-देना है सत्य की तरफ तो शब्द इतनी ही अगर खबर दे सकें कि शब्दों को छोड़ देना है तो बात पूरी हो जाती है।
मैं जिन शब्दों का उपयोग कर रहा हूँ, बहुत खुश नहीं हूँ। आज तक कोई भी बहुत खुश नहीं रहा है शब्दों का उपयोग करके। लेकिन करे क्या?
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