धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
बहुत अजीब बात है। सत्य को उपलब्ध होने से बोलने, न-बोलने का कोई भी संबंध नहीं है। सत्य को उपलब्ध हुए लोग नहीं बोलें या बोलें, इससे भी कोई संबंध नहीं है। एक बात तय है कि जिन्होंने भी सत्य को जाना, उन्हें बोलने में बड़ी कठिनाई हो गई। लेकिन उनकी दया और करुणा का यह कारण रहा होगा कि जिसे नहीं बोला जा सकता, उसे भी उनने बोलने की कोशिश की है, चेष्टा की है। जो नहीं कहा जा सकता, उस तरफ भी इशारे किए हैं। जिस तरफ आंखें नहीं उठाई जा सकतीं, उस सूरज की तरफ भी खबर की है। उनकी पीड़ा को हम नहीं समझ सकते। वे कितनी पीड़ा से गुजरते होंगे, यह कहना कठिन है। क्योंकि उनके सामने सबसे बड़ा पैराडाक्स, सबसे बडी विरोधाभासी चीज खड़ी हो जाती है। कुछ उन्होंने जाना है, और वह जाना हुआ लुट जाना चाहता है, बंट जाना चाहता है। लेकिन बांटने का कोई साधन हाथ में नहीं है। उसे कैसे बांटें, उसे कैसे लुटा दें?
बहुत अधूरे उपकरण हैं शब्दों के, भाषा के, उनका ही उपयोग करना पड़ता है। उनका उपयोग किया गया है। जो सत्य को जानता है, वह बोलता नहीं, फिजूल की बात है। लेकिन जो सत्य को जानता है, वह जानता है यह भी कि जो मैंने जाना है, वह बोला नहीं जा सकता है। लेकिन फिर भी बोलने का हजारों वर्ष से उपक्रम चलता है। कोई करुणा है सत्य के जानने के साथ ही--कोई प्रेम है, जो बंट जाना चाहता है। कोई चीज भीतर जन्मती है, वह बिखर जाना चाहती है, फैल जाना चाहती है। जैसे फूल खिलता है तो उसकी सुगंध हवाओं में लुट जाना चाहती है। दीया जलता है तो उसकी किरणें अंधेरे में दूर की यात्रा पर निकल जाती हैं। जब किसी प्राण में सत्य का दीया जलता है या सत्य का फूल खिलता है, तब सत्य की किरणें और सत्य की सुगंध भी अनेक-अनेक रूपों में बिखर जाना चाहती है, फैल जाना चाहती है।
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