धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
जिस जीवन में भी सत्य आया हो, वह हजार-हजार रूपों में प्रगट होना चाहता है। शब्द भी, चित्र भी, रंग भी, काव्य भी, न मालूम किन-किन रूपों में वह प्रगट होना चाहता है, बंट जाना चाहता है। जब भी आनंद उपलब्ध होता है तो वह बंटना चाहता है।
दुःख और आनंद में यही फर्क है। दुःख उपलब्ध होता है तो सिकुड़ता है, आदमी बंद होता है अपने में, क्लोज होता है। जब आप दुखी होते हैं तो आप द्वार बंद करके एक कोने में बैठ जाना चाहते हैं। नहीं चाहते कोई आए, कोई बोले, कोई मिले। दुःख सिकोड़ता है। जब बहुत दुखी होते है तो नशा पीकर बंद हो जाना चाहते हैं--कि किसी का मुझे पता ही न रहे कि कोई है। और भी ज्यादा दुखी होते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं, क्योंकि मर जाने से फिर किसी से कोई संबंध नहीं रह जाएगा।
लेकिन जब आनंद उपलब्ध होता है, तब किसी आदमी को बंद कमरे में बैठे देखा है? जब आनंद उपलब्ध होता है तो वह खोजने निकलता है--किसको दे दूं। कोई मिल जाए, जिससे मैं शेयर कर लूं, जिसको भागीदार बना लूं। जो लोग जंगल भी भाग गए थे, अगर उनको वहाँ आनंद मिल गया तो भागकर वापस बस्ती में आ गए।
महावीर जंगल में थे, बुद्ध जंगल में थे। फिर लौटकर बस्ती में कैसे आ गए, कौन खींच लाया - आप, मैं? हम तो पहले भी बस्ती में रहते थे। वे बस्ती से भाग गए थे। लौट कैसे आए, कौन ले आया? भीतर एक आनंद का जब जन्म हुआ तो वह आनंद मांगने लगा-- शेयर करो, बांटो। किसको बांटें? भागे बस्ती की तरफ, जहाँ लोग थे। वहाँ जाकर उनको कह देना होगा, वे किरणें उन तक पहुँचा देनी होंगी।
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