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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

लेकिन बुद्ध को यह भनक कान में पड़ गई। वे वृक्ष के पीछे से उठकर आगे आ गए। और उन्होंने कहा, सुभद्र, जो भी पूछना हो तो पूछ ले। क्योंकि मेरे नाम पर यह कलंक न रह जाए कि मैं जीवित था, और कोई प्यासा आया था और प्यासा वापस लौट गया।

इस आदमी को सत्य उपलब्ध नहीं हुआ होगा निश्चित ही, क्योंकि नहीं तो यह आदमी मरते वक्त भी बोलने की इतनी उत्सुकता दिखाता। गलती में रहे हम अब तक कि सोचते थे कि इस आदमी को सत्य उपलब्ध हो गया।

लेकिन सत्य तो उपलब्ध होता है। हजारों लोगों को हुआ है, होगा। वे अपनी-अपनी सामर्थ्य से चेष्टा करते हैं उसे बांट देने की। लेकिन जब हम उनके शब्दों को पकड़कर सोच लेते हैं कि सत्य मिल गया, तो भूल हो जाती है। यही शास्त्र पकड़ने की भूल है। बुद्ध के वचन को हम पकड़ लें, क्योंकि बुद्ध को सत्य मिला था--तो उनके वचनों को हम पकड़ लें, पूजा करें उन वचनों की, उन वचनों पर टीका-टिप्पणी करें, उन वचनों को कंठस्थ करें, उन वचनों को दोहराते रहें, जीवन इसमें व्यतीत कर दें--तो भूल हो जाती है। तो फिर हम इन्हीं शब्दों में अटके रह जाते हैं। तो फिर हम यहीं उलझकर रह जाते हैं।

एक आदमी के जीवन में प्रेम उपलब्ध हुआ हो। वह प्रेम के कुछ गीत गाए और हम उन गीतों को याद कर लें, पकड़ लें, कंठस्थ कर लें और सोचें कि हम भी प्रेम को उपलब्ध हो गए हैं--तो क्या यह ठीक होगा क्या प्रेम के गीत याद कर लेने से कोई प्रेम को उपलब्ध होता है? तो क्या सत्य के शब्द, सत्य की अभिव्यक्तियां--इनको पकड़ लेने से कोई सत्य को उपलब्ध हो जाएगा न तो प्रेम के गीत याद कर लेने से कोई प्रेम को पाता है। और न सत्य के गीत याद कर लेने से कोई सत्य को पाता है।

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