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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

बुद्ध जिस दिन मरे, सुबह ही हजारों भिक्षु इकट्ठे हो गए। उन्हें प्रेम करने वाले हजारों लोग।  बुद्ध ने उनसे कहा कि आज अंतिम क्षण है मेरे जीवन का। अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ। और इसके पहले कि मैं विदा लूं और विलीन हो जाऊं अनंत में, कुछ तुम्हें पूछना हो, पूछ लो।

वे सारे भिक्षु, वे सारे उन्हें प्रेम करने वाले लोग, उनकी आंखें आंसुओं से भरी हैं। उन्हें कोई प्रश्न नहीं सूझता। वे कहते हैं बहुत आपने दिया, बहुत आपने बांटा। कुछ अब हमें और नहीं पूछना, सब आपने बताया है। तीन बार बुद्ध पूछते हैं। फिर जब कोई कुछ नहीं पूछता तो वे उठकर पास में वृक्ष के पीछे चले जाते हैं। ताकि वहाँ वे शांति से ध्यान में डूबते चले जाएं और ध्यान की अंतिम गहराई में विलीन हो जाएं। वे वहाँ पीछे चले जाते हैं।

जिस गांव के किनारे यह घटना घटती है, उस गांव में सुभद्र नाम का एक व्यक्ति था। बुद्ध उस गांव से तीन बार निकले थे। लेकिन सुभद्र अपनी दुकान में व्यस्त था। उसने सोचा अगली बार आएंगे तब मिल लूंगा, तब दर्शन कर लूंगा, तब सुन लूंगा उनकी बातें। अभी उसे पता चला कि अब अगली बार बुद्ध नहीं आएंगे उस गांव से, अब अंतिम दिन है उनका। वह दुकान बंद करके भागा। इधर वह आया तो उसने पूछा, कहाँ हैं? मुझे कुछ पूछना है। तो भिक्षुओं ने कहा, चुप! वे हमसे विदा भी ले चुके। और उन्होंने पूछा भी था, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था। अब देर हो गई, अब बहुत देर हो गई। जब वे तीन बार तेरे गाव में आए थे, तब तू कहाँ था?

उसने कहा, मैं तो वहाँ था लेकिन सोचा कि फिर कभी अगली बार। अगर कुआं घर पर आ जाए तो आप भी सोचेंगे अगले दिन प्यास लगेगी, तब देखेंगे। पर उसने कहा कि अब तो दुबारा वे नहीं आ सकेंगे। क्या नहीं हो सकता ऐसा कुछ कि मैं उनसे पूछ लूं? दो शब्द मुझे जानने हैं, सुनने हैं। लेकिन भिक्षुओं ने कहा कि नहीं, अब यह नहीं हो सकता।

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