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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

अब तक की सारी शिक्षा, सारी संस्कृति, सारा समाज मनुष्य की इस अंतर्द्वद्व की व्यवस्था पर खड़ा हुआ है। फिर इस अंतर्द्वद्व के कारण अनेक विस्फोट होते हैं। जैसे हम केतली में चाय गरम करते हैं और केतली का मुंह बंद कर दें, ढक्कन बंद कर दें और गरम भी किए चले जाए तो क्या होगा एक्सप्लोजन होगा। केतली की भाप नहीं निकल पाएगी तो फोड़ देगी केतली के बर्तन को।

तो रोज-रोज आदमी में विस्फोट होता है। यह विस्फोट बहुत रूपों में होता है। एक आदमी पागल हो जाता है। यह भीतर दबाए गए विष का विस्फोट है। हमारे रोज-रोज की, दिन-दिन की कलह, संघर्ष--पति का पत्नी से, बच्चों का मां-बाप से, शिक्षक का विद्यार्थियों से, एक वर्ग का दूसरे वर्ग से, एक गांव का दूसरे गांव से, एक प्रांत का दूसरे प्रांत से, एक देश का दूसरे देश से, एक भाषा बोलने वालों का, दूसरी भाषा बोलने वालों से, रोज-रोज कलह--उसमें हमारा भीतर दबा हुआ रोग रोज-रोज निकलता है। फिर और बड़े पैमाने पर युद्ध खड़े हो जाते हैं।

पांच हजार वर्षों में आदमी ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े हैं। पंद्रह हजार युद्ध। क्या हम युद्ध ही लड़ते रहे दुनिया में हमारी आज तक की पांच हजार वर्ष की सारी सभ्यता और संस्कृति युद्ध की सभ्यता और संस्कृति है। लड़ने में ही हमने जीवन व्यतीत किया है। कुछ बीच-बीच में जो कालखंड आते हैं, जब हम नहीं लड़ते, उस समय हम लड़ने की तैयारियां करते रहते हैं। जब हम नहीं लड़ते, तब लड़ने की तैयारियां करते हैं। और या लड़ते हैं, या लड़ने की तैयारियां करते हैं। बस दो ही काम मनुष्य जाति करती रही है।

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