धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
यह क्या है ये इतने एक्सप्लोजन, इतने विस्फोट क्यों होते हैं छोटी सी चिनगारी से आदमी एकदम विक्षिप्त क्यों हो जाता है हिंदू--मुसलमान के नाम से, जैन--ईसाई के नाम से, सिक्ख--पारसी के नाम से, जरा सी बात और आग लग जाती है और आदमी पागल हो जाता है। आदमी जैसे पागल होने को तैयार बैठा हुआ है। उसके भीतर इतना दबाव है कि जरा मौका मिल जाए कि वह निकल जाए। जरा सी गुंजाइश खड़ी हो जाए और वह पागल हो जाए।
यह आकस्मिक नहीं है। ये इतने युद्ध, इतनी कलह, इतना द्वंद्व--यह जैसा मनुष्य है, उसके स्वाभाविक परिणाम है। तो चाहे राजनैतिक चिल्लाते रहें कि युद्ध नहीं होना चाहिए, चाहे साधु-सन्यासी समझाते रहें कि युद्ध बहुत बुरा है। लेकिन जब तक मनुष्य का मन सप्रेस्ड है, जब तक मनुष्य के मन में दमन है, तब तक युद्ध बंद नहीं हो सकते हैं। तब तक कोई ताकत युद्ध बंद नहीं कर सकेगी। तब तक कलह बंद नहीं हो सकती है। तब तक जीवन का रोज-रोज का जो संघर्ष है, वह बंद नहीं हो सकता है। एक तरफ से हम संघर्ष को बंद करेंगे, दूसरी तरफ से वह निकलने का रास्ता खोज लेगा। क्योंकि भीतर हम उबलते हुए ज्वालामुखी पर बैठे हैं। और उस ज्वालामुखी से हमारा कोई परिचय नहीं है। हम ज्वालामुखी पर अच्छा बढिया सोफा लगाकर आराम से बैठे हुए हैं। और नीचे ज्वालामुखी धधक रहा है।
और हम अपने सोफे को सजा रहे हैं। डेकोरेट कर रहे हैं अपने मकान को। और नीचे ज्वालामुखी धधक रहा है। हम ऊपर से सजाते रहते हैं, भीतर आग भभक रही है।
इस स्थिति में, उस आग को हम दबातें चले जाएं, तो हम टूटेंगे और अपने को नष्ट करेंगे।
आज तक मनुष्य ने यही किया है। क्या आगे भी मनुष्य को यही करना है या कि हम एक नए मनुष्य को जन्म दे सकते हैं, जिसका मन दमन पर आधारित न हो। लेकिन हम डर जाएंगे। हम कहेंगे, अगर हम दमन न करें अपने मन का तो दमन करने में तो हम कभी पागल होंगे, ठीक है, लेकिन दमन न करें तो इसी वक्त, इसी वक्त विस्फोट हो जाएगा।
अगर हम दबाएं न अपने को तो हमारे भीतर तो इतना जहर, इतने सांप-बिच्छू मालूम पड़ते हैं, इतना क्रोध, इतना सेक्स, इतनी वासना, इतना लोभ, इतनी ईर्ष्या मालूम पड़ती है- -अगर न दबाएं तो हम तो अभी सब निकल पड़ेगा।
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