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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक अदालत में एक मुकदमा चला। एक आदमी ने अपनी पत्नी को तलाक देने की दरख्वास्त की थी। मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा, क्या कारण आ गया है पत्नी को छोड़ देने का? उसने कहा, पत्नी में एक खराब आदत हमेशा से रही है। यह मेरे ऊपर चीजें फेंक-फेंककर निशाना लगाती है। उस मजिस्ट्रेट ने पूछा, कितने दिन हुए शादी हुए उसने कहा, बीस वर्ष। उसने कहा, पागल। लेकिन बीस वर्ष तुम कहाँ रहे? उस आदमी ने कहा, पहले इसका निशाना ठीक नहीं लगता था, अब अभ्यास से ठीक लगने लगा। बीस साल के अभ्यास से अब इसका निशाना चूकता ही नहीं। अब मैं घबड़ा गया हूँ। पहले निशाना अक्सर चूकता था, बात चलती थी। अभ्यास से निशाना अब बिलकुल ठीक लगने लगा है।

तो निरंतर--निरंतर हम एक झूठ का अभ्यास करते रहे हैं--मैं यह हूँ, मैं वह हूँ, मैं यह हूँ, मैं वह हूँ और भीतर-भीतर धक्के मारती रहे कोई चीज, तो अभ्यास से हम इस थोथे पाखंड को थोड़ा बहुत सम्हाल भी ले सकते हैं। एक आदमी जिसके भीतर आंसू फूट पड़ने को हों, वह भी अभ्यास से मुस्कुराता हुआ बैठा रह सकता है।

अक्सर हम ऐसा करते हैं। आंसू होते हैं भीतर, ऊपर हम मुस्कुराते हैं। सिर्फ इसलिए कि भीतर के आंसू किसी को दिखाई न पड़ें--मुस्कुराते रहते हैं। भीतर होता है दुःख, ऊपर बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हैं। भीतर होती है पीड़ा, ऊपर ऐसे मालूम पड़ते हैं कि बड़े खुश हैं, बड़े सुखी हैं। तो हम भीतर के विरोध में ऊपर कुछ क्वालिटीज चिपका लेते हैं, कुछ गुण चिपका लेते हैं।

लेकिन ध्यान रहे कि अक्सर जो गुण हम ऊपर से चिपकाते हैं, ठीक विरोधी गुण के सूचक होते हैं वे। भीतर कोई विरोधी चीज मौजूद होती है, अन्यथा इसको चिपकाने की कोई जरूरत नहीं थी।

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