धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
उस ऋषि ने उर्वशी को थका और घबड़ाया हुआ देखकर कहा, और कुछ फेंकना हो तो फेंक दो। अगर यह चमड़ी फेंकनी हो तो चमड़ी फेंक दो। इस केंचुल को भी उतार डालो। आज मैं देखने को ही खड़ा हूँ कि आखिर में है क्या? मैं पूरा ही देखने को आज आ गया हूँ। उर्वशी उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसने कहा, फिर मैं आपसे हार गई। क्योंकि जो पूरा ही देखने को राजी है, वह आखिरी में पा ही लेगा कि कुछ भी नहीं है। जो पूरा ही देखने को राजी है, वह जान ही लेगा कि कुछ भी नहीं है। जो पूरा देखने के पहले रुक जाता है, उसका रस भी भीतर रुक जाता है कि शायद कुछ शेष रह गया, उसे और जान लेता। और वह जो शेष रह गया है, वही उसके प्राणों की जकड़ हो जाती है। अब आपको हराने का मेरे पास कोई उपाय नहीं। मैं हार गई।
उर्वशी पैर पर गिर पड़ी। वह ऋषि नहीं हराया जा सका। क्यों- क्योंकि उसने अंत तक देखने को तैयारी और साहस किया।
चित्त की वृत्तियां भी उर्वशियों की भांति हैं। जो उनको पूरा, उनकी पूरी नग्नता में, उनकी पूरी नेकेडनेस में देखने को तैयार हो जाता है, उनके सब वस्त्र उतारकर--वे चित्त की वृत्तियां भी पैरों पर गिर जाती हैं और क्षमा माग लेती हैं कि अब हम हार गए।
लेकिन जो चित्त की वृत्तियों को छिपा लेता है, वस्त्रों में ढांक देता है, आँख बंद कर लेता है, वह हार जाता है वृत्तियों से। वृत्तियों से वही जीतता है, जो वृत्तियों को पूरा देखने के लिए तैयार और तत्पर है।
यह तैयारी निरीक्षण की, जागरण की--वृत्तियों को उनकी समग्रता में, उनकी पूर्णता में ही-- जीवन को बदलने, नया करने, सत्य की ओर आंखें खोलने, जीवन की जो जड़ें हैं, उनको पहचानने का मार्ग है। इसका साहस चाहिए।
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