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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

नृत्य थोड़ा आगे गया। उर्वशी ने और भी वस्त्र फेंक दिए, वह करीब-करीब नग्न हो गई। एक ही वस्त्र उसके शरीर पर रह गया। दूसरा ऋषि चिल्लाया, अब हद हो गई, यह तो अश्लीलता है। बंद करो, यह नृत्य अब नहीं देखा जा सकता।

पहले ऋषि ने कहा, मित्र, भूल गए, हमने पहले ऋषि से क्या कहा था तीसरे ऋषि ने कहा, अब अपनी आँख आप भी बंद कर लो। नृत्य तो चलेगा। नृत्य को रोकने का हक किसे है? आप अपनी आँख बंद कर ले सकते हैं।

दूसरे ऋषि को भी आँख बंद कर लेनी पड़ी। नृत्य आगे चलता रहा। आँख बंद करते ही दूसरे ऋषि को पता चला कि कम से कम आँख खुली थी तो उर्वशी एक वस्त्र पहने थी। आँख बंद करते ही ऋषि के मन ने उस वस्त्र को भी निकालकर अलग कर दिया। बहुत घबड़ाया।

उर्वशी--आँख बंद थी, लेकिन नग्न खड़ी थी। जिससे बचने को आँख बंद की थी, वही सामने आ गया था।

हमेशा यही होता है। जिससे बचने को हम आँख बंद करते हैं, वही सामने आ जाता है। आएगा ही। क्योंकि आँख बंद करने में हमने इतना रस जाहिर किया है कि रस निमंत्रण हो गया। आना जरूरी है उसका। दूसरा ऋषि भी कंप रहा है, घबड़ा रहा है। उर्वशी ने अंतिम वस्त्र भी फेंक दिया। सोचा था अंतिम वस्त्र फेंकते ही तीसरा ऋषि भी घबड़ा जाएगा। लेकिन उर्वशी भूल में थी। वस्त्र फेंक दिया गया। तीसरा ऋषि देखता रहा, देखता रहा। उर्वशी अब घबड़ाई। अब उसके पास फेंकने को कुछ भी न बचा था। अब और नग्न होना असंभव था। अब कुछ था ही नहीं। अब वह नग्न, और सीधी, और साफ खड़ी थी। अब और उघाड़ने को कुछ बाकी न बचा था। और यह ऋषि देखे ही चला जा रहा था।

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