धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
मुझे पता नहीं इन दोनों में से कौन सा नैतिक साहस है। लेकिन एक बात जरूर पता है, भीड़ से पृथक होने की हिम्मत जरूर नैतिक साहस है। हमेशा भीड़ के समक्ष झुक जाना--नैतिक कमजोरी है, नैतिक अशक्ति है, बलहीनता है, पुरुषार्थ का अभाव है। हमेशा-हमेशा भीड़ के समक्ष झुक जाना, हर बात में भीड़ के समझ झुक जाना, चित्त के आंतरिक तलों पर।
बाहर के तलों की बातें नहीं कह रहा हूँ कि सारा मुल्क बाएं चलता है तो आप द्वारा चलने लगे। कि सारा मुल्क सड़क के किनारे चलता है तो आप बीच में चलने लगे--यह मैं नहीं कह रहा हूँ। जीवन के बाहर के जो औपचारिक नियम है, उनमें तो सिर्फ नासमझ लोग साहस करते हैं।
सोवियत रूस में क्रांति हुई, उन्नीस सौ सत्तरह में। मास्को मुक्त हो गया, जार के हाथों से।
तो एक बूढ़ी औरत बीच सड़क पर खड़ी होकर गपशप करने लगी। एक ट्रेफिक के पुलिस मैन ने उसको कहा कि यह सड़क का चौराहा है, यहाँ यह गपशप करने की जगह नहीं, तुम भीड़ को बाधा दे रही हो। उसने कहा, छोड़ो, अब हम स्वतंत्र हैं। अब जहाँ हमको खड़ा होना होगा, वहाँ हम खड़े होंगे, और जहाँ हमें बात करनी होगी, हम बात करेंगे। अब कोई बंधन नहीं।
यह औरत नासमझ है। जीवन का, बाहर का जो जगत है, बाहर का जगत भीड़ का जगत है। वहाँ आप एक इंच भी चलते हैं तो चारों तरफ भीड़ के बीच में आपको रास्ता बनाना है। बाहर के जगत के नियम भीड़ के नियम ही होंगे, व्यक्ति के नियम नहीं हो सकते।
लेकिन भीतर के जगत में कोई भीड़ नहीं है। वहाँ कोई आपके सिवाय मौजूद नहीं है। वहाँ के जो नियम होंगे, उनके नियमों का, भीड़ का होना कतई जरूरी नहीं है। भीतर के जगत में आप व्यक्ति हो सकते हैं। बाहर के जगत में तो आपको समाज का सदस्य होना पड़ेगा।
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