धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
तो पहला सूत्र आज की सुबह आपसे कहना चाहता हूँ - आप इनकार करने में समर्थ होने चाहिए तो ही आपके भीतर धार्मिक आदमी पैदा हो सकेगा। क्योंकि धार्मिक आदमी गुलाम आदमी नहीं है, धार्मिक आदमी परिपूर्ण स्वतंत्र है। धार्मिक आदमी से ज्यादा स्वतंत्र कोई मनुष्य नहीं होता।
लेकिन हम देखते हैं कि धार्मिक आदमी से ज्यादा गुलाम आदमी दिखाई नहीं पड़ता दुनिया में। होना उलटा था। धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक प्रतिमा होता, धार्मिक आदमी स्वतंत्रता की एक गरिमा लिए होता, धार्मिक आदमी के जीवन से स्वतंत्रता की किरणें फूटती होतीं, वह एक मुक्त पुरुष होता, उसके चित्त पर कोई गुलामी न होती। लेकिन धार्मिक आदमी सबसे ज्यादा गुलाम है, इसीलिए धर्म सब झूठा सिद्ध हो गया है।
इस सच्चाई को मेरे कहने से आप स्वीकार कर लें तो आप यस-शेअर हो गए, आप हाँ कहने वाले हो गए। फिर मैं आपको गुलाम करने का एक कारण हो जाऊंगा। मेरे कहने से आप स्वीकार कर लेंगे तो इससे गुलामी तो बदलेगी, लेकिन गुलामी समाप्त नहीं होगी।
क्योंकि तब कोई दूसरे बंधन हटेंगे, मेरे बंधन आपको पकड़ ले सकते हैं। मेरे कहने से आपको स्वीकार नहीं करना है। सोचना है, देखना है। मैंने जो कहा, उसे अपने भीतर खोजना है कि क्या मेरी कही बात आपके भीतर तथ्यों से मेल खाती है, क्या वह फेक्टस से मेल खाती है? क्या आप भीतर के तल पर एक गुलाम आदमी हैं? क्या भीतर के तल पर आप भीड़ के एक सदस्य हैं? क्या भीतर के तल पर आपकी कोई निजी हैसियत, आपका कोई अपना होना है या नहीं है?
मैं जो बातें कह रहा हूँ, मेरे साथ ही साथ अगर आप भीतर उनकी तौल करते चलें और देखते चलें, क्या यह सच है और अगर आपको अपने भीतर के तथ्यों से मेल दिखाई पड़ जाए तो फिर मेरे कहने से आपने नहीं माना, आपने खोजा और पाया। तब फिर--तब फिर आप अपनी गुलामी को खुद देखने के कारण अगर उससे मुक्त होते हैं तो वह मुक्ति एक नई गुलामी की शुरुआत नहीं होगी।
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