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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

तो जिस स्वतंत्रता की सुबह मैंने बात की है, वह स्वयं को जाने बिना पूरी तरह फलित नहीं हो सकती। लेकिन उस तरफ चलने के लिए परतंत्रता को तोड़ देना जरूरी है। और स्मरण रखें, जिसके चित्त से परतंत्रता पूरी तरह विलीन हो जाती है, उसके चित्त से स्वच्छंदता भी अपने आप विलीन हो जाती है। क्योंकि स्वच्छंदता परतंत्रता की छाया, शेडो से ज्यादा नहीं यह सारे जगत में जो स्वच्छंदता दिखाई पड़ रही है, यह हजारों वर्षों की परतंत्रता का फल है। आपके तथाकथित ऋषियों-मुनियों, साधुसंतो, महात्माओं का इसमें हाथ है। जिनने भी मनुष्य के चित्त को परतंत्र बनाया है, उनने ही मनुष्य को अब मजबूर कर दिया स्वच्छंद होने को। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और मनुष्य को आज तक स्वतंत्र बनाने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। तो भय हमारे मन में होता है कि अगर हम स्वतंत्र हुए तो कहीं स्वच्छंद न हो जाएं।

स्वतंत्र मनुष्य कभी स्वच्छंद हुआ ही नहीं है। आज तक जमीन पर यह घटना घटी ही नहीं है कि स्वतत्र चित्त व्यक्ति कभी स्वच्छंद हुआ हो। स्वच्छंद होता है परतंत्र चित्त ही। परतंत्र चित्त जब क्रोध से भर जाता है तो स्वच्छंद हो जाता है।

हमारे, सभी नई पीढ़ियों के युवक आज क्रोध से भरे हैं। और इसलिए स्वच्छंद होते जा रहे हैं। इसमें आपका हाथ है--उनकी स्वच्छंदता में। यह हजारों वर्ष की मनुष्य के मन पर लादी गई दासता का हाथ है उसमें। जब तक हम इस सत्य को न समझेंगे, तब तक न तो हम मनुष्य को परतंत्रता से बचा सकते हैं और न स्वच्छंदता से। एक ह्विशियस सर्किल शुरू होता है।

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