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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

परतंत्र चित्त स्वच्छंद होना चाहता है। स्वच्छंद चित्त को देखकर हम घबड़ाते हैं और परतंत्रता को थोपने की कोशिश करते हैं। जितनी हम परतंत्रता थोपते हैं, उतनी स्वच्छंदता प्रतिक्रिया में पैदा होती है। जितनी स्वच्छंदता पैदा होती है, उतने हम भयभीत हो जाते हैं और परतंत्रता के नए आयोजन करते हैं। ऐसा एक दुष्ट-चक्र हजारों वर्ष से मनुष्य के ऊपर चल रहा है। अब यह शायद अंतिम घड़ी में पहुँच गया है। शायद परतंत्रता इतनी गहरी हो गई है कि उसके परिणाम में आदमी अब सब भांति स्वच्छंद हो जाना चाहता है।

चित्त को हम जितना दबातें हैं, उतनी उसकी प्रतिक्रियाएं, उसके रिएक्शंस होने शुरू होते हैं। एक फकीर था नसरुद्दीन। एक सांझ अपने घर से निकलता था। किन्हीं दो-तीन मित्रों के घर उसे मिलने जाना था। निकला ही था घर से कि उसका एक मित्र जलाल, दूर गाव से द्वार पर आकर उपस्थित हो गया। नसरुद्दीन ने कहा, तुम घर में ठहरो, मैं जरूरी काम से दो-तीन मित्रों को मिलने जाता हूँ, लौटकर फिर तुम्हारी सेवा-सत्कार कर सकूंगा। और तुम चाहो, थके न हो तो मेरे साथ तुम भी चल सकते हो।

जलाल ने कहा, मेरे कपड़े सब धूल-धूसरित हो गए रास्ते में। पसीने से मैं लथपथ हूँ। अगर तुम कपड़े मुझे दूसरे दे दो तो मैं तुम्हारे साथ चलूं। यहाँ बैठकर मैं क्या करूंगा- अच्छा होगा, तुम्हारे मित्रों से मिलना हो सकेगा।

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