धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
नसरुद्दीन ने अपने बहुमूल्य, जो कपड़े उसके पास श्रेष्ठतम थे, उसे दिए और वे दोनों मित्र गए। पहले घर में पहुँचे। नसरुद्दीन ने वहाँ कहा, ये हैं मेरे मित्र जलाल, इनसे आपका परिचय करा दूं। रहे कपड़े, कपड़े मेरे हैं। मित्र बहुत हैरान हुआ। इस सत्य को कहने की कोई भी जरूरत न थी। और यह क्या बेहूदी बात थी कि उसने कहा कि ये हैं मेरे मित्र जलाल और रहे कपड़े, कपड़े मेरे हैं। बाहर निकलते ही जलाल ने कहा, पागल तो नहीं हो तुम कपड़ों की बात उठाने की क्या जरूरत थी अब देखो, दूसरे घर में कपड़ों की कोई बात मत उठाना।
दूसरे घर में वे पहुँचे। नसरुद्दीन ने कहा, इनसे परिचय करा दूं। ये हैं मेरे पुराने मित्र जलाल, रही कपड़ों की बात, सो इनके ही हैं, मेरे नहीं है। जलाल हैरान हुआ। बाहर निकलकर उसने कहा, तुम्हें हो क्या गया है? इस बात को उठाने की कोई भी जरूरत नहीं थी कि कपड़े हैं और यह कहना भी कि इनके ही हैं, शक पैदा करता है, इसके उठाने की जरूरत क्या थी?
नसरुद्दीन ने कहा, मैं मुश्किल में पड़ गया। वह पहली बात मेरे मन में गूंजती रह गई, उसका रिएक्शन हो गया, उसकी प्रतिक्रिया हो गई। सोचा कि गलती हो गई--मैंने कहा, कपड़े मेरे हैं तो मैंने कहा, सुधार कर लूं, कह दूं कि कपड़े इन्हीं के हैं। उसके मित्र ने कहा, अब इसकी बात ही न उठे। यह बात खतम हो जानी चाहिए।
वे तीसरे मित्र के घर में पहुँचे। नसरुद्दीन ने कहा, ये हैं मेरे मित्र जलाल। रही कपड़ों की बात, सो उठाना उचित नहीं है। अपने मित्र से पूछा ठीक है न, कपड़ों की बात उठानी बिलकुल उचित नहीं है। कपड़े किसी के भी हों--क्या लेना-देना--मेरे हों कि इनके हों। कपड़ों की बात उठानी उचित ही नहीं है। बाहर निकलकर उसके मित्र ने कहा, अब मैं तुम्हारे साथ और नहीं जा सकूंगा। मैं हैरान हूँ, तुम्हें हो क्या रहा है?
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