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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

शब्द छाया से ज्यादा नहीं है। अगर मैं रास्ते पर चल रहा हूँ, और अगर आप मेरी छाया में ही उलझ जाएं तो निश्वित है कि आप फिर मुझे नहीं देख सकेंगे। मेरी छाया पर ही आपकी आँख होगी तो मुझ पर कैसे आँख हो सकती है मेरी छाया को आप छोड़ेंगे, तो शायद मुझे आप देख सकें। और मुझे देख सकेंगे, उस दिन आप पाएंगे छाया तो थी ही नहीं, मैं था। छाया तो छाया ही थी, शेडो ही थी, उसमें कोई सबस्टेंस न था।

सभी शास्त्र, जिन लोगों को सत्य अनुभव हुआ, उनकी छाया से ज्यादा नहीं हैं। उन छायाओं को पकड़ लेंगे आप तो वंचित रह जाएंगे सबस्टेंस से। वंचित रह जाएंगे उससे, जिसकी शास्त्र छाया बने हैं। सत्य के अनुभव की छाया की गूंज शब्दों में रह जाती है। हम उन्हीं को पकड़कर बैठ जाते हैं। जो शास्त्र को पकड़ लेता है, वह सत्य का शत्रु हो जाता है।

इसलिए मैंने कहा, शास्त्र से मुक्त हो जाएं, छाया से मुक्त हो जाएं।

कृष्ण ने जो जाना होगा, गीता शायद उसकी छाया है, शेडो है। वही तो नहीं है जो कृष्ण ने जाना था। उसे तो प्राणों से निकालकर बाहर लाने का कोई उपाय नहीं है। जो जाना था, शब्दों में छाया की तरह गूंज गया। और फिर हजारों वर्षों मे यह छाया भी खूब विकृत होती चली गई। क्योंकि इन हजारों वर्षों में, हजारों टीकाकार इस छाया के उपलब्ध हो गए।

टीकाकार शास्त्रों की हत्या करने में ऐसे कुशल लोग रहे हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है। छाया पर, और टीकाकारों की छायाएं सम्मिलित हो गईं। टीकाकारों पर, और भी उनके टीकाकार पैदा हुए। एक-एक ग्रंथ पर टीका पर टीका, और टीका पर टीका होती चली गई।

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