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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

उसने कहा, चौबीस घंटे। चौबीस घंटे बहुत हैं। वह आदमी भीतर गया। उसने जाकर पूरे स्वर्ग में अफवाह उड़ानी शुरू की कि नरक में एक बहुत नया अखबार निकल रहा है, उसके लिए बहुत अच्छे विज्ञापन एक्सपर्टस की जरूरत है। शैतान ने एक बहुत ही बड़ी एजेंसी खोली हुई है, विज्ञापन की। सब जगह उसने अफवाह उड़ा दी। दूसरे दिन चौबीस घंटे पूरे होने पर वह सेंट पीटर के पास गया। उसने कहा कि भाई कुछ हुआ - उसने कहा, क्या आश्वर्य कर दिया। तुमने तो हैरानी कर दी। पच्चीस ही चले गए।

वह आदमी बोला, पच्चीस ही चले गए। उसने कहा, माफ करो, मैं भी जाता हूँ। अफवाहों का कोई भरोसा नहीं, सच भी हो सकती है बात। जब पच्चीस चले गए तो मैं भी अब जाता हूँ, मैं भी यहाँ नहीं रह सकता हूँ।

कमजोर है हमारा मन। बार-बार दोहराने से--खुद भी आदमी झूठ को बार-बार दोहराए, कुछ दिनों में वह खुद ही भूल जाता है कि मैंने इसकी यात्रा झूठ की तरह शुरू की थी। वह सच हो जाता है। मनुष्य के सामने हजारों सत्य इसी भांति खड़े हुए हैं, जो असत्य है और प्रचार ने जिन्हें सत्य की गरिमा दे दी है।

सच तो यह है, सत्य का कोई प्रचार ही नहीं हो सकता है। प्रचार मात्र असत्य का हो सकता है। सत्य का तो अनुभव करना होता है। प्रचार का कहाँ उपाय है, सत्य को तो एक-एक व्यक्ति को स्वयं ही जानना होता है, दूसरे के प्रचार से कोई सत्य को कभी नहीं जान सकता।

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