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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

तो मैं फिर से कह दूं, ये किताबें जरूर हैं यहाँ, जब तक ये किताबे हैं, ठीक है, जिस दिन ये किताबें न हों, इनके साथ वही करना, जो शास्त्रों के साथ करना उचित होता है।

एक साधु का अंतिम क्षण आ गया था मृत्यु का। जीवनभर उसके भक्त, उसे पूजने वाले, उसकी तरफ आँख उठाकर देखने वाले--उसके शिष्यों ने बार-बार उससे कहा था कि तुम अपने जीवन के अनुभव एक किताब में लिख दो। वह साधु हमेशा टालता रहा था। अंतिम दिन, लाखों लोग इकट्ठे हुए थे। उसने घोषणा कर दी थी कि आज सूरज के डूबने के साथ मैं समाप्त हो जाऊंगा। हजारों लोग उसके दर्शन को आए थे।

सुबह ही सुबह उठकर उसने कहा कि मुझसे बहुत बार कहा गया था कि मैं कोई किताब लिख दूं। मैंने वह किताब अंततः लिख दी। और जो उसका सबसे प्यारा निकटतम मित्र था, उससे उसने कहा कि यह तुम किताब सम्हालो, इसे सम्हालकर रखना। यह बहुत बहुमूल्य है। इसमें मैंने सब कुछ लिख दिया है, जो सत्य है। और यह हजारों वर्ष तक मनुष्य के लिए बड़ी ऊंची संपदा सिद्ध होगी। यह कहकर उसने अपने मित्र और शिष्य के हाथ में वह किताब दी। लोगों ने जय-जयकार किया, तालियां पीटीं, उनकी वर्षों की आकांक्षा पूरी हो गई थी।

लेकिन उस शिष्य ने, जिसे किताब दी गई थी, किताब हाथ में लेकर पास में जलती अंगीठी में डाल दी। झट से किताब जल गई। सारे लोग हैरान रह गए, सारे लोग परेशान हो गए कि यह क्या किया। इतने वर्षों की प्रार्थना के बाद किताब लिखी गई थी और खुद गुरु ने कहा सम्हालकर रखना और इसने आग में डाल दी।

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