उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘मैं तो तुझे बिल्कुल घोंचू समझती थी‘‘ मामी को आश्चर्य हुआ।
‘‘अच्छा ये तो बता कि गंगा की चाल-ढाल कैसी है?’’ मामी ने जानना चाहा।
‘‘थोड़ा आगे झुककर चलती है!‘‘ देव ने बताया।
मामी ने सुना।
‘‘क्यों? ‘‘ मामी ने प्रश्न किया। वो जानना चाहती थी कि आखिर आगे की ओर झुककर क्यों चलती है।
‘‘....वो कमजोरी बहुत है ना! डाक्टर ने टाँनिक-वानिक लिखे है। वही पी रही है आजकल‘‘ देव ने बताया।
’’हाय! हाय! देव! जवानी में ये हाल है तो बुढापे में क्या होगा?’’ जैसे मामी टाँनिक वाली बात सुनकर चिंता में डूब गई।
कुछ क्षणों के लिए वो सोच में पड़ गई...
‘‘अच्छा ये तो बता कि गंगा देखने में कैसी लगती है?‘‘ मामी ने बड़े मन से पूछा। वो गंगा को बिल्कुल साक्षात देखना चाहती थी।
‘‘....बिल्कुल लड़का!‘‘ देव तुरन्त बोला।
‘‘क्यों?‘‘ मामी ने पूछा। वो ये बात कुछ समझ नहीं पायी।
‘‘ऊपर तो कुछ है ही नहीं!‘‘ देव के मुँह से निकल पडा।
‘‘हाँ! हाँ! हाँ! ....हाँ! हाँ! हाँ!‘‘ गीता मामी ने अपनी हँसी रोकने की बड़ी कोशिश की पर रोक न सकी।
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