उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘माँ! ....’ देव सावित्री की मुड़ा। उसने सावित्री को पुकारा। सीढि़यों पर से ही उसने अपनी माँ के आने की आहट सुन ली। सावित्री की भारी भरकम साड़ी जिसमें हजार तरह की लटकन और घुँघरू लगे थे।
‘टेलीफोन में तो तुम कहती थी कि सबसे पहले तुम मुझे देखोगी!.... सबसे पहले मेरी आरती उतारोगी!.... और अब देखों जब पूरा परिवार मुझसे मिल चुका तब तुम..... सबसे बाद में मुझसे मिलने आ रही हो! ...जाओ! तुम मुझे जरा भी प्यार नहीं करती!’ देव ने मुँह बना लिया और सावित्री से विपरीत दिशा में घूम गया।
पर सच्चाई यह थी कि ये देव का एक स्टाइल था अपनी जान से प्यारी माँ से बात करने का। देव हमेशा से ही जानता था कि सावित्री उसे बहुत चाहती है।
‘देव! देर इसलिए लगी कि मैं तेरे लिए काला टीका बना रही थी....’ यह कहते हुए सावित्री ने देव को उसके मत्थे के बाईं ओर एक टीका लगाया।
‘....वरना घर में किसी की हिम्मत नहीं कि मुझसे पहले तुझे कोई देखे’ सावित्री बोली।
सावित्री ने तुरन्त ही देव को गले से लगा लिया। क्योंकि आज छह सालों बाद वो उसे देख पा रही थी। उसने देव को मत्थे, गाल, व हाथों में जगह-जगह से बार-बार चूमा जैसा गाय अपने बछड़े को चूमती है, चाटती है... जब वह शाम को घास के मैदान से घास चरने के बाद लौट आता है। सावित्री भावुक हो उठी थी। माँ का प्यार पैदा हो गया था। इसमे प्रेम और करूण रस दोनों का मिश्रण था।
‘अच्छा! अच्छा! मैंने मान लिया कि तुम मुझे सबसे ज्यादा प्यार करती हो!’ देव ने जवाब दिया
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