उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
दयाराम देव के बैग, सूटकेस व पहिये की बड़ी सी घिररी वाली ट्राली आदि सामान लेकर देव के कमरे में रख आया। घर के सभी लोगों के लिए कुछ न गिफ्ट था। सावित्री के लिए एक लाल रंग की ऊनी शाल, गीता भाभी के लिए एक सिल्क पिकाँक कलर की नीले रंग की साड़ी। मामी के तीनों बच्चों के लिए विभिन्न प्रकार के खिलौने। घर के दोनो नौकरों-दयाराम और सीताराम व उनके परिवार के लिए भी कुछ न कुछ। सभी को सभी के गिफ्ट दे दिये गये। मैंने जाना ...
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अगला दिन।
सुबह का समय। आठ बजे।
दिल्ली से गोशाला की पूरे पन्द्रह घन्टे की यात्रा करने के बाद देव बहुत थका हुआ था। रात में उसे ठीक से नीदं आयी थी। अब वह अच्छा महसूस कर रहा था। मैंने नोटिस किया ...
पूरा परिवार महरून रंग की दस फुट लम्बी टेबल पर एकत्र हुआ।
‘देव!..... बेटा! तू दिल्ली में क्यों रहता है? वहाँ पे रहने की जरूरत ही क्या है? यहाँ गोशाला में हमारी इतनी रियासत है कि तेरी सात पुश्ते भी बैठ कर खाऐंगी.... तो भी कम न पड़ेगा! ....फिर दिल्ली में रहने की क्या जरूरत है?’ सावित्री ने सेब, अमरूद, केले व अन्य फल काटकर उस पर चाट मसाला छिड़क कर देव को दिया।
देव ने लकड़ी वाली नुकीली सींक से कुछ फल खाये।
‘माँ! ....तुम तो जानती हो कि दिल्ली देश की राजधानी है .....मैं वहाँ पर रहना चाहता हूँ! देश-दुनिया देखना चाहता हूँ ....वहाँ की संस्कृति समझना चाहता हूँ ...फिर वहाँ पर एक से बढ़कर एक लाइबेरी है जहाँ पर मुझे तरह-तरह की बढ़िया किताबें पढ़ने को मिल जाती हैं’ देव ने जवाब दिया।
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