उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘क्यों? आखिर क्यों?‘‘ मैंने प्रश्न किया.....
‘‘....क्योंकि गंगा जहाँ एक ओर देव से बहुत प्यार करती थी। वहीं गंगा सच स्वीकरने से डरती थी। गंगा अमीर देव की तुलना में गरीब है, निर्धन है, एक छोटे घराने से सम्बन्ध रखती है, गंगा का बाबू होटल चलाता है, चाय बेचता है.... ये सब कुछ ऐसा कटु सत्य था... जिसका सामना कम अक्ल वाली गंगा अभी ठीक तरह से नहीं कर पा रही थी। पर अपना परिपक्व देव गंगा के मन की इस बात को भली-भाँति जानता था। मैंने पाया....
कुछ दिनों बाद। छुट्टियाँ समाप्त हुई। कालेज खुला। सभी लोग आये।
‘‘गंगा! आई लव यू‘‘ देव से हमेशा की तरह ही गंगा का स्वागत किया।
पर ये क्या? गंगा बड़ी उदास-उदास सी थी। जैसे अभी रो देगी।
क्यों? क्यों भाई? जो लड़की सभी को रुला देती है आज वो भला खुद कैसे रो सकती है? मेरे मन में प्रश्न उठा.....
‘‘क्या हुआ? जैसे देव ने गंगा का मन पढ़ लिया।
‘‘देदे.....ववव! तुम जान गये ना कि मैं बहुत गरीब हूँ मेरे बाबू चाय बेचते है?‘‘ गंगा ने प्रश्न किया।
‘‘अमीर-गरीब से क्या होता है गंगा!‘‘ देव ने अमीर-गरीब वाली थ्योरी को एक सिरे से रिजेक्ट कर दिया
‘‘मैं तो तुमसे प्यार करता हूँ! ...सच्चा प्यार‘‘ देव ने बताया।
पर अपरिपक्व दिमाग वाली गंगा अभी भी दुखी-दुखी सी थी। मैंने नोटिस किया....
तब परिपक्व देव ने गंगा को मनोबल देने के लिए एक बार फिर से अपनी रफ काँपी पर बड़ी तेजी से कुछ लिखा। और फट्टाक से लिखकर गंगा को दिखाया.....
तुम क्या जानो ...
मेरे दिल में ... ...
तुम रहती हो ...
धड़कन की तरह....
यार बदल न जाना.....
मौसम की तरह ...
मेरे यार बदल न जाना ....
मौसम की तरह.....
सरकार बदल न जाना.....
मौसम की तरह ...
देखो! यार बदल न जाना.....
मौसम की तरह ...
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