उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
हाय ददई !
कालेज में सर्दियों की छुट्टियाँ घोषित हुई। कालेज बन्द हो गया। पर जैसे-जैसे दिन बीतने लगे देव को गंगा की बड़ी याद आने लगी। मैंने महसूस किया....
‘‘क्या हुआ देव! तुम बहुत परेशान दिख रहे हो?‘‘ गीता मामी ने देव से पूछा उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर।
‘‘मामी! कालेज में 15 दिन की छुट्टी हो गयी है! गंगा की बड़ी याद आ रही है मुझे‘‘ देव ने उदासी का कारण बताया।
‘‘तो गंगा को टेलीफोन क्यों नहीं कर लेते?‘‘ मामी बोली।
‘‘मामी! रानीगंज गोशाला की तरह कोई शहर नहीं है बल्कि गाँव है, तुम तो जानती हो अच्छी तरह....
वहाँ टेलीफोन का एक खम्भा तक नहीं!‘‘ देव ने समस्या बताई।
‘‘....तो उसके घर क्यूँ नहीं चला जाता?‘‘ जैसे मामी ने समाधान बताया।
‘‘हाँ! ये ठीक रहेगा!‘‘ देव को भी ये आइडिया अच्छा लगा
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देव ने एक बार फिर से बस पकड़ी और पहुँच गया रानीगंज। देव गंगा की दुकान में प्रवेश करने ही वाला था कि अचानक से वो ठहर गया। वह बहुत डर गया। मारे डर के उसके दाँत किटकिटाने लगे। पैर काँपने लगे। इस भीषण सर्दी में भी देव के माथे पर पसीना आ गया। मैंने नोटिस किया....
‘‘क्यों? क्यों भाई? क्या कोई साँप, क्या कोई मगरमच्छ सामने आ गया? मैंने जानना चाहा....
अरे नहीं! नहीं! एक नुकीली काली सींगो वाला बैल सामने आ गया। मैंने देखा.....
अचानक गंगा पता नहीं कहाँ से प्रकट हो गई। देव को देखते ही गंगा बहुत गुस्सा सी गई...।
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