उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘जौन-जौन लड़के दिल्ली से पढ़के आवत है, उ कभ्भो नीक नाई हुई सकत!‘‘ गंगा के बाबू ने देव की एक तस्वीर बना ली कि देव एक अच्छा लड़का हो ही नहीं सकता क्योंके वो दिल्ली से पढ़कर आया है।
‘‘हाँ! हाँ! बिटिया! तोहरे बाबू जी सही कहत है! जौन-जौन दिल्ली के कस्टमर दुकान पर सब्जी पूड़ी खाय आवत है सबके पैसा उधार हैं! दिल्ली वाले तो बहुत बेईमान होत हैं बिटिया‘‘ गंगा की माँ रुकमणि ने भी गंगा के मन में खूब चाभी भर दी।
फिर गंगा का बाबू शान्त हो गया और वापस दुकान संभालने लौट गया। गंगा की माँ ने एक बार फिर से गंगा को बताया कि दिल्ली से पढ़कर लौटा देव कभी अच्छा नहीं हो सकता। वो गंगा से प्यार करने का सिर्फ दिखावा करता हैं। देव गंगा से सिर्फ शारीरिक सुख ही लेना चाहता है।
0
‘‘पर बाबू! देव कहत है कि ओका हमरे अन्दर भगवान दिखाई देत है!‘‘ गंगा ने बताया अपने गुस्साये बाबू को...
‘‘का? भगवान दिखाई देत है!‘‘ ये जानकर उसका गुस्सा काफी कम हो गया। मैंने देखा। वो खुद एक बहुत धार्मिक स्वभाव वाला इन्सान था और सुबह उठकर घण्टों पूजा-पाठ करता था। ये भगवान वाली बात जानकर वो सोच में पड़ गया। अब गंगा का बाबू बहुत कनफ्यूज सा हो गया कि आखिर इस बात का क्या मतलब है कि ‘‘देव को गंगा के अन्दर भगवान दिखाई देता है। गंगासागर हलवाई ने अपनी पत्नी और गंगा की माँ रुकमणि की ओर देखा अपने दोनो कंधे उँचकाते हुए।
अधेड़ उम्र वाली रुकमणि भी सोच में पड़ गई।
|