उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘नाईं! नाईं! बिटिया! इ कलयुग चलत है! केकू का केहू के अन्दर भगवान नाई दिखाई सकत! रुकमणि इस निष्कर्ष पर पहुँची।
‘‘हाँ!‘‘ गंगासागर हलवाई ने सिर हिलाया और अपना पूर्ण समर्थन दिया।
‘‘बिटिया! तू पैदा हुई गइउ! इतनी बड़वार हुई गईउ!.... पर आज तक हमका तोहरे बाबूजी मा आपन भगवान नाई दिखाई दिया!
‘‘.....अब बताओ उ देव का बच्चा तूका अब्बै मिला! केवल चार दिन भवा! और कैसे देव का तोहरे अन्दर भगवान दिखाई देत हैं?‘‘ गंगा की माँ रुकमणि ने किसी वकील की तरह जिरह करते हुए पूछा।
‘‘हाँ!‘‘ गंगा के बाबू ने एक बार फिर से सिर हिलाकर अपना पूर्ण समर्थन दिया।
गंगा का मन एक बार फिर शंका से भर गया। गंगा ने देव की ये चिट्ठी पूरी भी नहीं पढ़ी। गंगा अपने स्वभाव के अनुसार तुरन्त ही आग बबूली हो गईं। पूरी चिट्ठी को गंगा ने गुस्से में आकर अपने शक्तिशाली पन्जों की सहायता से तोड़-मरोड़ दिया जिससे कागज की एक गेंद सी बन गई और फिर गंगा ने उसे ऊपर की ओर फेंका अटारी की ओर.....जहाँ घर का सारा कबाड़ जमा था। चिट्ढी अटारी में सबसे कोनें मे जाकर गिरी।
बेचारे देव ने गंगा को जो कुछ बताना चाहा था वो सारी बातें गंगा को पता भी नहीं चल पाई। देव से बहुत प्यार करने वाली लेकिन स्वभाव से महामूर्ख गंगा ने भी अपनी माँ और बाबू के कहने पर देव को गलत मान लिया। प्रेम ने अब नफरत का रूप लिया। मैंने देखा....
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