उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘स्वागतम्‘‘ कह रहा था ये पोस्टर और कमरे मे आने वाले हर मेहमान का स्वागत कर रहा था ये शायद। मैंने सोचा....
‘‘देव! हमने आपके सोलह सोमवार के लिए कुछ बनाया है ...।
गायत्री के हाथों में एक काँच का बड़ा सा बाउल था ...और बाउल में थी ...खीर! जो उसने दूध, चावल, कस्टर्ड पाउडर और मेंवो से बनाई थी।
‘ठीक है! टेबल पर रख दो!‘‘ देव बोला।
फिर देव की नजर गायत्री की किताबों वाली अलमारी पर गयी। इसमें मैथ्स, साइंस, बायोलाँजी, केमिस्ट्री, फिजिक्स आदि की मोटी-मोटी किताबें खड़ी-खड़ी क्रमबद्ध रूप से लगी थीं।
‘‘ ....तो क्या तुमने सारी किताबें पढ़ लीं?‘‘ देव को थोड़ा आश्चर्य हुआ किताबों के मोटे साइज को देखकर।
‘‘हाँ!‘‘ गायत्री बोली।
‘‘वाओ गायत्री! यू आर ग्रेट!.... मैं तो मैथ्स में इतना कमजोर था कि दसवीं में ही मारे डर के मैनें मैथ्स छोड़ दी थी, असलियत में तो मुझे कभी मैथ्स समझ ही नहीं आयी!‘‘ देव ने स्वीकार किया।
‘‘अपने-अपने दिमाग की बात है जिसमें मन लग जाए‘‘ श्रीदेवी मतलब गायत्री ने अपने छोटे-छोटे कंधे उँचकाते हुए कहा।
‘‘अरे देव! आपकी खीर ठंडी हो रही है! इसे जल्दी खाइये!‘‘ गायत्री बोली।
पर देव का तो जैसे मन ही नहीं कर रहा था।
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