उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘वो ऊपर! बाई तरफ वाला!‘ पतली दुबली गायत्री ने अपनी भिन्डी जैसी पतली उँगली से इशारा किया।
‘‘चलिए! आपको अपना कमरा दिखाऊँ!‘‘ खट्-खट् करती हुई देव की उँगली पकड़ गायत्री सीढि़यों पर चढ़ी बड़ी फुर्ती से।
‘ये श्रीदेवी है तो इतनी दुबली-पतली, ना हड्डी ना खाल! सिर्फ मायाजाल! फिर इसमें इतनी असीमित उर्जा आखिर कहाँ से आ जाती है?’ मैंने सोचा आश्चर्य से....
दरवाजा खोलते ही सामने एक बड़ी सी खिड़की थी जहाँ से ललितपुर के राजा के प्रसिद्ध आम के बाग दिख रहें थे। ये आग के बाग कोई लल्लू-पन्जू वाले बाग नहीं थे बल्कि इन आमों की सप्लाई लखनऊ तक थी।
बागों के पार ललितपुर की विश्वप्रसिद्ध चीनी मिल की हजारों छोटी-2 बत्तियाँ किसी गुलदस्ते की तरह दूर से चमक रही थी। इस दृश्य को देखकर लग रहा था कि जैसे ये कोई फैक्टरी नहीं बल्कि अपने आप में कोई छोटा-मोटा शहर हो। मैंने गौर किया...
‘‘वाओ गायत्री! तुम्हारा कमरा तो काफी अच्छा है! लोकेशन काफी अच्छी है इसकी‘‘ देव ने तारीफ की।
‘मैं अभी एक मिनट में आई!‘‘ गायत्री किसी काम से बाहर चली गई।
देव की नजर कमरे मे उपस्थित अन्य वस्तुओं पर गयी। जैसे दीवार पर लगा एक बड़ा सा फिल्मी पोस्टर जिसमें आज के जमाने की सफल फिल्मी हीरोइन दीपिका पादुकोण लाल साड़ी पहने हुए और हाथ में जलता हुआ दीपक लिए हुई थी खड़ी थी। दीपिका पादुकोण की नजरें (भौंहें) बहुत ही कँटीली थीं। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि वह बहुत सुन्दर लग रही थी। फिल्मी हीरोइनें एक तो बहुत सुन्दर होती हैं, कोई भी कोई कमी नहीं निकाल सकता। दूसरे वो ऐक्टिंग भी कर लेती हैं। रो लेती हैं! हँस लेती हैं, डाँस कर लेती है! क्या-क्या ड्रामा कर लेती है! शायद तभी उन्हें एक ही पिक्चर के लिए लाखों-करोड़ो रुपये मिल जाते हैं। इस पोस्टर को देख देव ने विचार किया।
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