उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
सावित्री ने दोपहर देव के डैडी को कानपुर टेलीफोन किया था। कुछ जरूरी बात की थी। अब सारा परिवार खाने वाली मेज पर एक बार फिर से एकत्र हो गया था...
‘गीता! नौकरानियों ने बोल दो कि खाना ले आयें! सभी बहुत भूखे हैं!’ सावित्री ने गीता मामी से कहा। गीता मामी रसोईघर की ओर दौड़ गयी। देव मामी के तीन बच्चों के साथ खेलता हुआ डाइनिंग टेबल की ओर आया। देव ने पिन्की (मामी की बेटी) को गोद में उठा रखा था। देव ने एक नीली सफेद छोटे चेक वाली काँटन हाफ फिटिंग शर्ट और एक नीली जींस पहन रखी थी। वह गजब का स्मार्ट लग रहा था।
‘मेरा बेटा इतनी जल्दी बड़ा कैसे हो गया? कल तो ये कितना छोटा था? यही घुँटनों के बल दौड़ता था..... और अब देखों ये आज कैसे एक आदमी जितना बड़ा हो गया है?’ जहाँ देव पिंकी के साथ खेल रहा था वहीं सावित्री आँखें गड़ाकर ये सारी बातें मन ही मन सोच रही थी। उसे वही आनन्द प्राप्त हो रहा था जो लोगों को अपनी जवान संतानों को देखकर प्राप्त होता है। मैंने गौर किया...
देव ने सावित्री के सामने दो कुर्सियाँ पीछे की ओर खींची। एक पर पिंकी को बैठाया और दूसरे पर खुद बैठा। अब तक विभिन्न प्रकार का बना हुआ खाना टेबल पर आ चुका था। कई साल बाद देव के घर लौटने की खुशी में आज घर में नाँन वेज खाना बना था। मटन गाढ़ा, मसालेदार व बहुत ही लजीज था जो विभिन्न प्रकार के मसालों से बनाया गया था। वही मुर्गे को तन्दूर में लोहे ही पतली छड़ों में पिरोकर भूना गया था। गीता मामी ने कीमा और चने की दाल मिलाकर कराब रोल भी बनाया था। सारी डिशेश देव की मनपसन्द डिशेश थी। सभी लोगों ने खाना खाया।
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