उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘अपनी शादी होने के बाद भी तुम मुझसे और गंगा से मिलने आती रहो हमेशा!‘‘ देव बोला।
‘‘नहीं! नहीं!’ गायत्री ने तुरन्त ही मना कर दिया।
‘....उस उल्टी खोपड़ी की लड़की का क्या भरोसा? आज उसने मेरा अपमान किया, कल को मेरे पति का अपमान कर दे! उसकी तो कोई गारन्टी ही नहीं!‘‘ गायत्री को शंका हुई।
‘‘नहीं! नहीं! गायत्री! आज गंगा के अकल नहीं है, पर कल को जरूर आ जाएगी!‘‘
‘‘मैं उसे समझा लूँगा!‘‘ देव ने विश्वास दिलाया।
‘‘ठीक है! सिर्फ आप कह रहें है तभी!‘‘ गायत्री ने हामी भरी।
‘‘प्रामिस?‘‘ देव ने पक्का करना चाहा।
‘‘प्रामिस!‘‘ गायत्री ने पक्का किया।
....तभी देव की नजर दीवार घड़ी पर पड़ी। साढ़े आठ बज चुके थे।
‘‘गायत्री हमें बहुत देर हो रही है! और ज्यादा देर हुई तो गोशाला के लिए बस नहीं मिलेगी!‘‘ देव बोला।
‘‘पर ये खीर?‘‘ गायत्री ने पूछा।
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