उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘अच्छा लाओ!‘‘ देव ने जल्दी-जल्दी हप्प-हप्प करके बड़े-बड़े चम्मचों से खीर निपटा दी।
‘धत् तेरी की.....’ देव ने रूखेपन से खुद से कहा.... धीमे स्वर में किसी बात पर।
‘क्या हुआ देव?’ गायत्री ने पूछा।
‘ओ सॉरी! मैं गंगा के प्यार में इतना पागल हो गया हूँ कि आजकल कुछ याद ही नहीं रहता। तुम्हारे लिए जन्मदिन का कोई तोहफा भी नहीं लाया!... कितना गधा हूँ मैं!.. मैं गिफ्ट खरीदना ही भूल गया!’ देव खुद को डाँटने लगा। सच में देव को गायत्री के लिए गिफ्ट खरीदने की बिल्कुल याद ही नहीं रही इस प्यार-व्यार के चक्कर में।
‘देन ओके! ...किस मी! ...समझ लो यही मेरे जन्मदिन का तोहफा है!’ गायत्री ने चहकते हुए कहा। और देव को अपना चुंबन लेने का निमन्त्रण दिया अपने दोनों कमजोर गालों पर फिर भी देव के लिए महत्वपूर्ण व महाशक्तिशाली कन्धों को एक बार ऊपर की ओर उँचकाते हुए।
अरे! अरे! ये क्या हो रहा है यार? कहीं गायत्री ने कोई अल्कोहलिक ड्रिंक तो नहीं पी ली? कहीं गायत्री बहक तो नहीं गयी? हमेशा से ही बहुत समझदार और होनहार गायत्री अपने सही होश-ओ हवाश में तो है ना?’ मैं तो ये देख चक्कर में पड़ गया।
ये लड़का जो बात-बात में कहता है कि गंगा से सच्चा प्यार करता है.... अब देखें कि देव क्या करता है? क्या देव गायत्री को किस करेगा? क्या वो उसे चूमेगा? मेरी जिज्ञासा बहुत तीव्र हो गयी थी...
देव कुछ न बोला। वास्तविकता में वो कुछ बोल ही न सका। वो हतप्रद था। खामोश था। शब्दहीन था। जैसे उसके पास शब्दों का अकाल पड़ गया हो।
जहाँ देव गंगा से सच्चा प्यार करता है वही उसकी सबसे अच्छी दोस्त, उसके दुख-सुख में हमेशा उसका साथ देने वाली गायत्री आज उससे किस माँग रही है, चुंबन लेने को कह रही है .....अब तो ये हीरो धर्मसंकट में पड़ गया है, मैंने सोचा...
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