लोगों की राय

उपन्यास >> गंगा और देव

गंगा और देव

आशीष कुमार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :407
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9563
आईएसबीएन :9781613015872

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

184 पाठक हैं

आज…. प्रेम किया है हमने….


सारे मछुवारों ने आपस में राय बनाई कि देव को यहाँ जंगल के बीचों-बीच छोड़ना बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं। मछुवारों ने देव को उठाया और अपनी पतली-पतली डोगियों ‘नावो‘ में लिटाया। मिट्टी के तेल से जलने वाली अपनी-अपनी लालटेन जलाई जिससे पीली-पीली रोशनी उत्पन्न हुई। और सभी मछुवारों ने इस रात के अँधेरे में अपनी-अपनी चप्पुओं की सहायता से अपनी पतली-पतली लम्बी-लम्बी नावों ‘डोंगियों‘ को धीरे-धीरे खेना शुरू किया। मैंने देखा....

मरजाँवा .......आँ
मरजाँवा .......आँ...
तेरे ईश्क पें .....मरजावाँ....
भीगे-भीगे सपनों का जैसे खत है ... ...
गीली-गीली सपनों की जैसे लत है ... ...
मरजाँवा .......मरजाँवा .....
तेरे ईश्क पे मर जाँवा सनम!

मैंने एक गीत के कुछ बोल गाये देव की इस बेचारी सी हालत को देखकर....

0

करीब रात के नौ बजे....

‘‘भौं! भौं! भौं! भौं!.....‘‘ गाँव के कुत्ते भौंकने लगे। ये मछुवारों की बस्ती थी। शायद कुत्तों ने मछुवारों के आने की आवाज सुन ली थी। पूरे गाँव में खलबली मच गई। गाँव की सारी स्त्रियाँ जो रात का खाना पका रही थीं वो अपने-अपने घरों से बाहर निकल के आयीं। सोते हुए सारे छोटे-छोटे शिशु जाग गये।

मछुवारों ने अपनी-अपनी डोगियाँ किनारे पर लगे बाँस के खूँटों से बाँध दीं। और देव को तुरन्त ही गाँव के अन्दर एक बड़े से झोपड़े में लेकर आये। और एक खाट पर लेटाया। ये गाँव का आधिकारिक रूप से स्वागत गृह था। जब भी गाँव में बाहर से कोई मेहमान आता था तो उसे यहीं ठहराया जाता था। मैंने जाना...

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book