उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
शाम का समय। अब अँधेरा होने वाला था। तभी वहाँ से गुजर रहे कुछ मछुवारों ने देव को देखा ...
‘‘अरे! उ देखों! कौनों आदमी है!‘‘ एक मछुवारों ने देव दूर से देखा।
वो सारे के सारे के सारे दौड़कर देव के पास आये।
‘‘अरे इ तो जिन्दा है!‘‘ दूसरे मछुवारे ने देव की कलाई पकड़ कर नब्ज देखी और पाया कि नब्ज चल रही है।
‘‘लागत है कौनों दुखियारा है!‘‘ तीसरा मछुवारा बोला जब उसने देव की आँखों के नीचे सूखे हुए आँसुओं के निशान देखे।
सारे मछुवारे बड़े ही काले-काले थे। उन्होंने अपने तन पर कुछ ना पहना था, नीचे कमर पर सिर्फ मैली-2 लुँगी लपेटे थे। और गले में कई काले धागे जो पानी में रहने वाले प्राणघातक जीवों से उनकी रक्षा करते थे। वो लोग मछली पकड़कर अपने घर लौट रहे थे कि उन्हें देव दिख गया। मैंने जाना....
‘‘अगर ऐका हियाँ छोड़ा तो इ जिन्दा न बची!
जंगली जानवर ऐका न छोडि़है! मिनटन मा ऐका खाय जहिहैं!‘‘ चौथा मछुवारा बोला।
ये जंगल बाघ, भेड़िया, भालू ,चीते, सियार, लकड़बग्घा आदि आदमखोर जानवरों से भरा पड़ा था। आये दिन ये जानवर गाँवों में घुसकर भैंसों, बकरियों को खा लेते थे। यहाँ तक कि घर से बाहर सोते हुए बच्चों, औरतों व आदमियों पर भी कई बार हमला कर देते थे। कुख्यात जानवरों के हमलें की खबरें आए दिन गोशाला के अखबार में छपती रहती थीं। कहीं गंगा के प्यार के कारण सीधा-साधा देव किसी शेर वेर का निवाला ना बन जाये!‘‘ मुझे देव की बड़ी चिन्ता सी होने लगी....
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