उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
प्रियवस्तुदान
लालगंज।
संगीता का घर।
गंगा के प्रेम वियोग के इन उदासी और गमगीन क्षणों में देव पहुँचा संगीता से मदद माँगने। मैंने जाना....
ये शाम का वक्त था। संगीता के दो लड़के, एक 10 साल का और दूसरा 6 साल का, सामने खेतों में पतंग उड़ा रहे थे। कार्तिक का महीना चल रहा था। मौसम बहुत ही सुहावना था। हवा धीरे-धीरे चल रही थी। बच्चों के पतंग उड़ाने के लिए ये गति बिल्कुल अनुकूल थी। मैंने पाया....
वहीं दूसरी ओर संगीता के पतिदेव दूर खेतों में धान के चावल फटकारने वाली मशीन पर धान की सूखी लच्छियाँ लगा रहे थे। ‘‘खर! खर! खर! खर!‘‘ की आवाज के साथ चावल के नये-नये सफेद चमकदार दाने मशीन के दूसरी ओर से निकल रहे थे। मैंने नोटिस किया....
‘‘संगीता! हम गंगा के बिना मर जाएंगें! जी नहीं पाएंगें ....उस पागल के बिना!‘‘ देव बोला।
‘‘अब तुम ही कुछ रास्ता बनाओ!‘‘ देव ने मदद माँगी।
‘‘अच्छा ठीक है! ठीक है! ....पहले पानी तो पियो!‘‘ संगीता ने देव को घर की बनाई मिठाई दी जो उसने खुद बनाई थी। मिठाई तिकोने आकार में कटी थी, रंग मटमैला था फिर भी यह खाने में ठीक थी। देव ने पानी पिया।
‘‘खाना?‘‘ संगीता ने पूछा।
‘‘संगीता!... मेरी जान निकल रही है और तुम्हें खाने की पड़ी है!’ देव को बड़ा गुस्सा आ गया था।
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