उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
सावित्री ने सारा खाना उठाकर फेंक दिया जो वो थाली में लगाकर लायी थी। सब्जी से दीवारें खराब हो गईं। मसाले की कई बूँदे तो ऊपर छत में पीओपी वाली डिजायन में जा चिपकी। जो थाली पटकी थी वो इतने वेग से पटकी थी कि वह जगह-जगह से पिचककर टेढ़ी-मेंढी हो गई। मैंने देखा....
सावित्री को बहुत ज्यादा गुस्सा आ गया था। वो बहुत क्रोधित हो गई थी।
‘‘मुझे विश्वास नहीं होता देव!.... एक चाय वाली के चक्कर में तुमने अपनी जिन्दगी बर्बाद करके रखी है!‘‘ सावित्री बोली चिल्लाकर ऊँची आवाज में किसी हाथी की तरह चिंघाड़ते हुए।
‘‘क्या इसी दिन के लिए हमने तुम्हें दिल्ली भेजा था... पढ़ने के लिए?
‘‘क्या यही दिन देखने के लिए हमने तुम पर लाखों रूपये खर्च कर दिये, कभी एक भी पैसे का हिसाब नहीं लगाया?
‘‘उस चायवाली से शादी कर तुम भी सारी जिन्दगी चाय-समोसा बेचना चाहते हो? ......पूरी बिरादरी, पूरे समाज में नाक कटवाओगे मेरी? लोग क्या कहेगें कि इतने बड़ी जमींदार के इकलौते बेटे ने अपनी पत्नी के रूप में एक चाय बनाने वाली को चुना?‘‘ सावित्री ने तिलमिलाकर पूछा।
सावित्री ने देव को ये सोचकर उच्च शिक्षा दिलवायी थी कि देव कोई बड़ा अधिकारी बनेगा। लाल बत्ती लेकर घर आएगा। सावित्री भी लाल बत्ती में बैठकर पूरे गोशाला में घूमेगी, रोब जमाएगी। पर..... कहते हैं ना कि आदमी जो सोचता है वो हमेशा नहीं होता। बेचारी सावित्री को क्या पता था कि उसके इकलौते, पढ़े-लिखे लड़के को एक चाय बनाने वाली से प्यार हो जाएगा? अब इसे एक प्रकार से सावित्री का दुर्भाग्य कह सकते हैं। मैंने सोचा....
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