उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव चुपचाप सुनता रहा। उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। वह जरा सा हिला-डुला भी नहीं क्योंकि उसकी माँ एक प्रकार से सच ही कह रही थी।
गंगा एक चायवाली क्या, यदि सड़को पर सुबह-सुबह झाडू लगाने वाली एक जमादारनी होती, गोशाला की नगरपालिका द्वारा बनाई हुई सरकारी नालियों का गन्दा मल साफ करने वाली एक भंगिन होती, या किसी मंदिर की सीढि़यों पर बैठकर फटे-पुराने चीथड़ों में लिपटी और दोनों हाथ फैलाकर भीख माँगने वाली कोई भिखारिन होती.... तो भी मैं गंगा से ही शादी करता।
यदि गंगा... कोई अछूत, विधवा, वेश्या...., कोई बाँझ स्त्री या इस संसार की सबसे निम्न कोटि में जन्मी कोई भाग्यहीन लड़की होती तो भी मैं गंगा से ही विवाह करता।
...और यदि भाग्य के देवता भगवान ब्रह्मा ने गंगा के हाथों में विवाह ही न लिखा होता तो मै भी सारा जीवन बिना विवाह किये ही गुजारता। उसे ही अपने जीवन साथी के रूप में चुनता। मैं गंगा के गले में ही विवाह की माला पहनाता, किसी और स्त्री को नहीं!
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‘ये हलवाई लोग बहुत जादूगर होते हैं देव? पता नहीं क्या-क्या केमिकल डाल के अपनी मिठाइयाँ बनाते है? जरूर उस लड़की ने तुम पर कोई जादू कर दिया है? कहीं तुमने उसके हाथ का बना खाना तो नहीं खा लिया! हाँ! हाँ! जरूर यही बात है!‘‘ जैसे सावित्री को पूरा यकीन हो चला।
ये बात सुन देव को क्रोध आ गया, वो आग के समान जल उठा...
‘‘माँ! अगर अब! तुमने गंगा के खिलाफ एक भी शब्द बोला तो हमारा मरा हुआ मुँह देखोगी तुम! समझीं?‘‘ देव रो पड़ा।
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