उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘वो तो बेचारी बच्ची है!‘‘ उसे तो यह भी नहीं पता कि सूरज किस दिशा में निकलता है? वो क्या जादू करेगी हम पर?‘‘ देव ने रोते-रोते भरे हुए गले से कहा..... संघर्ष करते हुए।
‘‘वो तो बहुत भोली है! बहुत सीधी!
‘‘वो कोई लड़की वड़की नहीं है! हमें उसके अन्दर अपना रब दिखाई देता है, अपना खुदा दिखाई देता है!‘‘
हमें उसके अन्दर अपना भगवान दिखाई देता है!‘‘
सावित्री देव को एक जोर का थप्पड़ मारने के लिए लपकी.... इस भगवान वाली बात को सुनकर।
‘‘हाँ! हाँ! मार दो मार दो हमें! वैसे भी हमारी जिन्दगी मे रखा ही क्या है? गंगा ने तो हमसे बात करना वैसे ही बन्द कर रखा है! उससे अच्छा तो हम मर ही जाये!‘‘ देव बोला रोते-रोते... अपने आँसुओं को अपने शर्ट के आस्तीन से पोछने हुए।
‘‘भाभी! जवान लड़के पर हाथ छोड़ोगी? मामी बीच में आ गयीं। उन्होने सावित्री का हाथ पकड़ लिया।
चलो! चलो!... चलो यहाँ से!‘‘ मामी सावित्री को दूसरे कमरे मे खीच ले गई।
फिर आकर दीवार साफ करने लगी तौलिये को पानी मे भिगोकर। घर का माहौल काफी गरमा गया जैसे कूकर मे 4-5 सीटी लग गयी हो।
भाई! ये प्यार-व्यार तो बिल्कुल टोरनैडों तूफान बन कर किसी का भी घर आसानी से तोड़ सकता है। मैंने महसूस किया.....
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