उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘अपनी पूरी जिन्दगी में कभी किसी से मारपीट नहीं की! कभी किसी को गाली नहीं दी! कभी हिंसा नहीं की! एक चिड़िया को भी पत्थर फेंक के नहीं मारा हमने!... आज तक कोई पाप नहीं किया और उसके बदले ये सिला दिया है भगवान ने हमें!’
‘नफरत हो गई है हमें भगवान से! नफरत हो गई है हमें देवताओं से!... नफरत हो गई है हमें इस सारी दुनिया से गंगा!‘‘ देव ने गंगा को बताया था।
गंगा देव की ये चिट्ठी कई महीनों बाद पढ़ रही थी। कागज पर देव के जो आँसू गिरे थे वो सूखकर गोलाकार धब्बे की शक्ल ले चुके थे जैसे ज्वालामुखी फटे और लावा के रूप में आसपास के स्थान पर जम जाए। मैंने तुलना की....
देव ने बड़ी घृणापूर्वक ये सब लिखा था। देव का शरीर, मन और आत्मा चोटिल हो गयी थी। और जब आत्मा चोटिल होती है तब व्यक्ति एक प्रकार से अपना अस्तित्व ही खो देता है। आस्तिक और ईश्वर में विश्वास रखने वाला देव अब नास्तिक और ईश्वर को न माननेवाला लगने लगा था। यही प्रतीत हो रहा था....
इस पिक्चर में तो ट्रेजिडी ही ट्रेजिडी है। मैंने महसूस किया....। एक तो देव ने हलवाइयों की लड़की से प्यार किया है जो चम्मच से नाप-नाप कर अपने समोसे, कचौडी, पकौडीं, मिठाइयाँ बनाती है। अब जो आदमी नाप-नाप कर हर काम करे वो क्या जाने प्यार-व्यार? मैंने सोचा....
...और दूसरा अपराध देव ने किया कि आज के जमाने वाला हल्का-फुल्का वाला, दो-चार दिन वाला नकली वाला प्यार करना चाहिये था। पर इस मूर्ख ने कर लिया सच वाला असली वाला प्यार! अब दो-दो, बडी-बड़ी, भारी-भारी गल्ती करोगे तो कड़ी सजा मिलेगी ही। मैंने सोचा,,,,
0
|