उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘इस दुनिया में अगर कोई सबसे बुरी, खराब, गंदी और घिनौनी चीज है तो वो किसी के लिये प्यार ही है ...प्रेम ही है!‘‘ देव ने गंगा को बताया था रोते-रोते। जो आँसू निकल रहे थे वो भाप की तरह खौल रहे थे और चिट्ठी के कागज पर टप! टप! टप! टप! कर गिरे थे।
ये सब कुछ पढ़ कर गंगा फूट-फूट कर रोने लगी। जो लड़की कुछ समय पहले निर्जीव पत्थर की मूर्ति थी... उसमें अचानक से जान आ गयीं, जैसे प्राणों का संचार हो गया। सारे मानवीय संवेग और भावनायें अब जाग उठी। देव ने दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज ‘प्यार‘ को बुरा, खराब और घिनौना बताया था। ये जानकर गंगा को बड़ी आत्मग्लानि हुई। वो क्रन्दन, रुदन और बड़ा भयंकर विलाप करने लगी। मैंने देखा...
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‘‘गंगा! हमें इस प्यार-व्यार की चीज से नफरत हो गयी है! .....नफरत! बहुत-बहुत ज्यादा नफरत! प्रेम के इन ढाई अक्षरों से!‘‘ देव ने गंगा को बताया था। बेचारे का दिल जो टूटा था। ये चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते गंगा की नाक भी बहने लगी। गंगा अपने सलवार सूट के दुपट्टे से अपनी नाक पोछने लगी।
‘‘हम पूछते हैं... आखिर क्यों बनाई भगवान ने ये चीज? क्या दुनिया मरी जा रही थी... प्यार-व्यार के बिना? जैसे देव ने गंगा से नहीं, स्वयं भगवान से ये प्रश्न पूछा था।
‘‘गंगा! अब तो हमें अपने आप से भी घिन आने लगी है!‘‘ देव ने बड़े ही क्षोभपूर्ण भाव से ये पंक्ति लिखी थी।
‘‘हमने जीवन में पहली बार किसी से प्यार किया और पहले ही प्रेम में हमें धोखा मिला है! क्या पिछले जनम में हमारे कर्म इतने खराब हैं? बताओ? बताओ गंगा? ये सब लिखने से पहले हमें मौत आ जाती तो कितना अच्छा होता?‘‘ देव ने गंगा से पूछा था।
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