उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
जो लडका अभी तक गंगा से मिलने से पहले हँसता ही रहता था, चहकता ही रहता था... आँसू क्या होते हैं? गम क्या होता है? जिसे बिल्कुल नहीं पता था उसका सामना ‘प्रेम’ नामक भारी भरकम दैत्य से हुआ।
जो देव पहले तब ही रोता था जब बुखार हो जाने पर डाक्टर घर आता था और सिरिन्ज में दवा भर उसे सुई लगाता था। पर अब वहीं डाक्टर अगर देव को सौ-दो सौ सुई भी लगा देता तो भी शायद देव को फर्क न पड़ता। अब कोई डाक्टर कहीं पर कोई बड़ा इंजेक्शन नहीं लगाता था... पर पर फिर भी देव को लगता था कि कोई उसे अनेक सुईयाँ चुभो रहा हो। मैनें साफ-साफ देखा...
जो लड़का पहले इतना बहादुर था कि कहीं चोट लग जाये, कहीं फट भी जाए, कहीं खून भी निकल आए तो नहीं रोता था... वही देव अब रात-रात भर अपने कमरे में रोता रहता था, चीखता-चिल्लाता रहता था। आँसुओं से तकिया, बिस्तर और देव के कपड़े भीग जाते थे। अब कहीं चोट के निशान भी नहीं थे... पर अन्दर से घाव ही घाव थे... अदृश्य रूप से। मैंने पाया...
0
‘‘गंगा! तुम्हारे गोरे बदन के भूखे नहीं हैं हम!... हम तो बस प्यार के भूखे हैं!... प्रेम के भूखे हैं! इतने सालों में हमें कोई ऐसा नहीं मिला जिसके साथ बैठकर हम अपने दिल की बात कर सकें, जो हमें समझ सकें!‘‘ देव ने गंगा से कहा था।
गंगा जैसे-जैसे देव की ये कई महीनों पुरानी चिट्ठी पढ़ती गई... गंगा का सामना सच से होता चला गया। गंगा के रोए न चुका। गंगा का दुपट्टा अब पूरी तरह भीग चुका था पर देव की कुछ चिट्ठी अभी भी शेष थी...
|