उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गंगा! हम बहुत भावुक हैं! बहुत इमोशनल टाइप के हैं... इसीलिए बहुत जल्दी तुम्हें अपना दिल दे बैठे, बस इतनी सी गल्ती हुई है हमसे!
....हमने कोई चोरी नहीं की है, किसी का कत्ल नहीं किया है, बल्कि हमनें किसी से प्यार कर लिया है... प्रेम कर लिया है! दिल लगा लिया है... क्या यही गल्ती है हमारी? क्या इसी बात की सजा हमें मिल रही है? बताओ गंगा? बताओ हमें?‘‘ देव ने रोते-रोते ये सवाल पूछा था गंगा से। मैंने जाना...
दिल लगा लिया!
मैनें तुमसे प्यार करके ......
तुमसे प्यार करके ......
तुमसे प्यार करके ......
चैन खो दिया!
मैनें इकरार करके
तुमसे प्यार करके ......
तुमसे प्यार करके ......
मैनें गाया देव की ओर से गंगा के लिये।
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‘‘गंगा! शारीरिक सुख तो तब तक है जब तक जवानी है। उसके बाह तो मन का प्रेम ही काम आता है पति पत्नी के बीच। तुम्हें ये बात पता होनी चाहिए!‘‘ देव ने गंगा को समझाया था इस चिट्ठी के माध्यम से।
लड़का बात तो सोलह आने सच कह रहा है पर इस मोटे दिमाग वाली शक्की और वहमी लड़की को समझाऐ कौन? मेरे मन में प्रश्न उठा....
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