उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गंगईया! का देव का चाहत हो? का देव से शादी करेक है?‘‘
‘‘हाँ!‘‘ गंगा ने हाँ ने सिर हिलाया बिना बोले ही। मैंने देखा....
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गोशाला। सावित्री का घर। सुबह के पाँच बजे।
‘धड़! धड़! धड़! धड़!....’ की दरवाजा भड़भड़ाने की आवाज हुई घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर।
हवेली के सारे लोग सावित्री, देव, गीता मामी, मामा, उनके तीन बच्चे और दो नौकर सभी सो ही रहे थे। ये टवाइलाइड का समय था जो कि न तो दिन था और न रात। आकाश में क्षितिज पर पूर्व की ओर से अंधकार छँटना शुरू हो गया था। ये दृश्य देखकर कोई भी कह सकता था कि कुछ ही देर में अँधेरा मिट जाएगा और हर तरह रोशनी ही रोशनी हो जाएगी! ये कोई भी कह सकता था। मैंने पाया...
तभी ...
‘मालकिन! मालकिन!... कोनौ आवा है! कहत है कौनो रानीगंज के हलवाई हैं!... साथ में एक लड़की है और कौनों औरत!....’ घर का नौकर दयाराम जोर-जोर से दरवाजा खटखटा रहा था।
सावित्री ये शोर सुनकर तुरन्त ही जाग पड़ी। गीता मामी भी तुरन्त अपने कमरे से निकल के आ गयी। सभी लोग जाग गये।
‘ये इस वक्त..... सुबह के पाँच बजे आखिर कौन आया है?’ सावित्री और गीता मामी दोनों ये सोचते हुए बाहर निकल के आई और सौ गज की दूरी से लोहे के जालीदार मेन गेट पर गंगा के परिवार को पाया। दोनों के आश्चर्य का कोई ठिकाना न था।
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