उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘दयाराम! उन लोगों को सम्मान सहित ले आओ!’ देव की माँ सावित्री और गीता मामी तुरन्त ही पहचान गयीं कि ये कोई अन्जान नहीं बल्कि गंगा का वो परिवार है जिनके बारे में वे पिछले कई सालों से सुनती आई हैं। ये वही महान परिवार है जिसकी वजह से सावित्री के घर की सुख-शान्ति दाँव पर लग गई है। दोनों तुरन्त ही जान गयीं।
‘राम! राम!.....’ गंगा के बाबू मतलब गंगासागर हलवाई ने झुककर, बड़े आदर के साथ देव की माँ सावित्री को नमस्कार किया। आज वो हमेशा की तरह अपनी मैली लुन्गी में नहीं था... बल्कि साफ एवं स्वच्छ सफेद रंग का धोती-कुर्ता पहने था। साथ में गंगा की माँ रुकमणि भी हरे रंग की नई साड़ी पहनकर आई थी।
‘ नमस्ते!’ सावित्री ने भी मुस्कराकर गंगा के बाबू का अभिवादन किया।
‘आप हमें सावित्री कह सकते है!’ सावित्री बोली मुस्कराकर।
वही दूसरी ओर गंगा की माँ रुकमणि बैठक वाले हाल के छत में लगे क्रीम कलर की रोशनी देने वाले बड़े-बड़े झूमरों को बड़ी उत्सुकता और आश्चर्य से निहार रही थी जैसे उसने पहली बार कोई झूमर देखा हो। वहीं गंगा को पूरी तरह अक्ल आ चुकी थी। और उसे देखकर कोई भी कह सकता था कि लड़की पिछली रात बहुत जम के रोई है।
‘हमका सब मालूम पड़ गवा है!....’ गंगा के बाबू ने देव की चिट्ठी सावित्री को दिखाई।
‘हम तो देव का कौनो लड़कियन के पीछे भागे वाला लड़का समझत रहेन!. पर हम गलत रहेन!’ गंगासागर हलवाई ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा।
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