उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘हमार मरै के बाद हमार दुकनियाँ बन्द हुई जायी! यही एक अफसोस है हमका!‘‘ गंगा का बाबू बोला धीरे-धीरे लेकिन भारी शब्दों में।
‘‘....अगर भगवान एक लड़का दई देत तो कम से कम हमार नाम तो चलत!‘‘ साठ वर्षीय गंगा का बाबू फिर बोला। ये कहते हुए उसकी आँखें मारे दुख के नम हो गईं।
गंगासागर हलवाई के मरने के साथ ही उनकी दुकान बन्द हो जाएगी। ‘‘गंगासागर मिष्ठान भण्डार‘‘ पर ताला लग जाएगा और गंगा के बाबू का नाम हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। यही दुख उसे बार-बार खाये जा रहा था। अब सभी ने ये जाना। देव ने भी....
गंगा के बाबू को देखकर सभी लोग कुछ समय के लिए सोच में पड़ गये कि आखिर कैसे उनको दिलासा दिया जाये? कैसे समझाया जाये?। तभी देव को कुछ उपाय सूझा....।
‘‘बाबू!‘‘ देव ने आत्मविश्वास भरे शब्दों में कुछ कहना शुरू किया।
‘‘....अगर ऐसा हो कि हम रानीगंज में बस जाएं और आपकी दुकान चलाऐं तो?‘‘ देव ने विनम्र लेकिन दृढ़ शब्दों में पूछा।
गंगा का बाबू और अम्मा दोनों चौंक पड़े ये सुनकर। कुछ सेकेण्ड तक तो वो कुछ समझ ही नहीं पाये।
‘‘तोहार मतलब?‘‘ गंगा के बाबू ने पूछा बड़े आश्चर्य से अचरज के साथ अपनी दोनों पलकें झपकाते हुए।
‘‘मतलब कि हम एक हलवाई बनना चाहते हैं!‘‘ देव ने इच्छा प्रकट की।
गंगा का बाबू और अम्मा दोनों चौंक पड़े ये सुनकर।
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