उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘देव! गंगा का बहुत ज्यादा चाहत है... अब हम जानेन!’ गंगा के साठ वर्षीय बाबू ने सिर हिलाकर कहा।
‘‘बतावा आपका कितना दहेज चाही? हम शादी खातिर तैयार हन!’
‘जी!’ सावित्री ये सुन मुस्करा उठी। वो काफी प्रसन्न हो गयी थी।
‘कौन-कौन सामान चाही? ओके लिस्टिया बनायेके हमका दई देओ!‘‘ गंगा के बाबू मतलब गंगासागर हलवाई ने पूछा सीधे-सीधे सावित्री से।
‘‘अरे! अरे! ये कैसी बात कर रहे हैं आप?‘‘ देव की माँ सावित्री बोली।
‘‘हमारा घर देखिये! हमारे खेत और बगीचे देखिये! क्या आपको लगता है कि हमें किसी चीज की कमी है? क्या कुछ ऐसा है जो हमारे पास नहीं है?‘‘ सावित्री ने पूछा गंगा के बाबू से।
‘‘हमें तो बस चाहिए... आपकी बेटी.. अपनी बहू के रूप में! इसके सिवा हमें कुछ नहीं चाहिये!‘‘सावित्री ने मुस्कराते हुए गंगा का बड़ी ध्यान से अवलोकन करते हुए कहा और दहेज लेने से साफ इन्कार कर दिया।
‘‘हाँ‘‘ गंगा के बाबू ने सिर हिलाया। वो जानता था कि देव के घर वाले उससे कहीं ज्यादा अमीर हैं। उन्हें पैसों की भूख नहीं है, दहेज का कोई लालच नहीं है। उसे ये बात अच्छी तरह पता थी।
पर ये क्या? अगले ही पल अचानक से वो बड़ा उदास हो गया। उसका चेहरा उतर गया। मैंने नोटिस किया..
‘‘इस खुशी के मौके पर उदास होने का क्या कारण है?‘‘ मैंने गंगासागर हलवाई को देखकर सोचा....
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