उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
फिर... देव ने गंगा को कमरे से बाहर बुलाया और गंगा के कान में कुछ कहा। गंगा ने वो बात अपनी माँ रुकमणि से कही। और रुकमणि ने वो बात गंगा के बाबू के कान में कही...।
‘‘समधिन!...‘‘ गंगा के बाबू ने बड़ी ही मीठी आवाज में देव की माँ सावित्री से कुछ कहना शुरू किया।
‘‘....हमका अब्बै पता चला है कि तू आपन लड़कवा का बहुत चाहत हो! ओके बिना नाई रह सकत हो!, इ मारे तुहूँ रानीगंज मा रहो... बिटिया और दामादजी के साथ!‘‘ गंगा के बाबू गंगासागर हलवाई से अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा...
सावित्री तुरन्त जान गई कि ये सारी प्लानिंग देव ने की है। वो सोच में पड़ गई। वहाँ मौजूद सभी लोग सावित्री को ही देखने लगे कि क्या सावित्री मान जाएगी? या इन्कार कर देगी, सभी लोग सोचने लगे। मैं भी चक्कर में पड़ गया...
फिर कुछ क्षणों बाद.....
‘‘हमे स्वीकार है!‘‘ एम ए पास सावित्री मुस्कराकर बोली। गंगा और देव की जान में जान आई। मैंने पाया....
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