उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
शादी
गंगा देव के साथ ललितपुर गई गायत्री के घर। और पिछली गल्ती के लिए गायत्री से माफी माँगी। गायत्री तो बेचारी शुरू से ही बड़ी दयालु प्रवृति की थी, इसलिए गायत्री ने तुरन्त ही गंगा को माफ कर दिया। गंगा ने गायत्री को अपनी और देव की शादी में आने का निमन्त्रण दिया। शादी अगले दिन होनी थी।
ओ गाड!....ओ गाड!
ओ गाड! तुसी ग्रेट हो!
ओ गाड! तुसी ग्रेट हो!...
मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि आखिर में तूने इस लड़की को दिमाग दे ही दिया।
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सुबह का समय। शादी का दिन।
देव का सारा परिवार रानीगंज में आ गया था गंगा और देव की इस शादी के समारोह भव्य बनाने। मैंने जाना...
देव की माँ सावित्री जो गोशाला की एक अमीर थी ने अपने हवेली बनाने वाले राजगीरों को रानीगंज भेजा और गंगा के पुराने, जगह-जगह से टूटे, फूटे घर की अच्छी तरह मरम्मत कराई। इतना ही नहीं सावित्री ने गंगा और देव और स्वयं के रहने के लिए दुमंजिले पर चार बड़े आलीशान कमरे भी बनवाऐ। फिर गंगा के इस घर को आसमानी नीले रंग से रंगवाया गया। बाहर सड़क की ओर बालकनी बनवायी गई और डिजाइनदार छज्जा बनवाया गया जो इस समय फैशन में चल रहा था। सबसे आगे की ओर लोहे की एक ग्रिल लगवाई गई जहाँ पर से चाय पीते हुए बाहर के दृश्य का आनन्द लिया जा सकता था। गंगासागर हलवाई का घर जो पहले देखने से लगता था कि अब गिरा कि कब गिरा, उसकी पूरी काया ही पलट गई थी। अब वो एक जानदार, शानदार मकान लगता था। मैंने देखा...
सारा खर्च सावित्री ने ही किया।
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