उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
गंगा और देव बालकनी पर आकर खड़े हुए हाथों में चाय का प्याला लेकर। गंगा कुछ सोच-विचार कर रही थी। फिर आखिरकार वो बोली....
‘देव! तुम चाहो तो अपना फैसला बदल सकते हो! अभी भी तुम्हारे पास वक्त है!’ गंगा ने धीमे से हल्के भाव से कहा।
फैसला मतलब गंगा से शादी करने का महानिर्णय। जिससे देव के घर वालों का नाम नीचा हो जायेगा। सब लोग सार्वजनिक रूप से जान जाएंगे कि देव जैसे पढ़े-लिखे, समझदार, होनहार, फटाफट इंगिलश बोलने वाले लड़के ने एक बहुत ही गरीब घर की लपूझन्ना लड़की से शादी कर ली है। इतना ही नहीं देव ने सचमुच में एक हलवाई बनना और गंगा की दुकान चलाना भी स्वीकार कर लिया है।
‘हूँ!’ देव ने गंगा की बात सुनी। देव मन्द-मन्द मुस्की मारने लगा गंगा की ये बात सुनकर।
‘तुम्हें शिव से इसलिए नहीं माँगा कि अपने फैसले पर बाद में पछताउँ!’ देव ने हमेशा की तरह अपनी चिर-परिचित वाणी में कहा कमाल की धैर्यपूर्वकता के साथ।
‘मैं राजा होता या रंक, चोर होता या पुलिस, एक गड़रिया होता या कोई लोहार... तो भी मैं तुमसे ही शादी करता गंगा!’ देव बोला।
वो एक बार फिर से मुस्कराया।
‘प्रेम वो धन है जिसे पाने के बाद व्यक्ति सदैव के लिए धनवान हो जाता है! धन की देवी लक्ष्मी व अन्य कोई देवता भी उसे निर्धन नहीं कर सकता!’ देव हमेशा की तरह अपने विशिष्ट अन्दाज में बोला।
‘समझ गैन!’ गंगा भी मुस्करा उठी। मैंने देखा....
तभी गायत्री वहाँ आ पहुँची.....
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