उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
बाप रे बाप! कमाल हो गया!
जादू हो गया, टोना हो गया, चमत्कार हो गया!
सनकी, अगली, पगली, रगली, सगली, मगली, वगली गंगा देव की हो गयी! सिर्फ और सिर्फ देव की। मैनें साफ-साफ देखा....
अब वो देव ही होगा जो चौबीस घण्टे बकर-बकर करने वाली इस लड़की को झेलेगा। गंगा के बाबू और अम्मा को अब मुक्ति मिली। उनकी जान छूटी इस पागल लड़की से। मैंने पाया...
‘अब! वर-वधू अग्नि के साथ फेरे लेंगें! पहले वर आगे चलेगा और कन्या पीछे!’ पण्डित से निर्देश दिए। दोनों से अग्नि के चार चक्कर लगाऐ जिसमें देव आगे था और गंगा पीछे।
‘अब! कन्या आगे चलेगी और वर पीछे और अग्नि के तीन चक्कर लगाऐंगे!’ पण्डित से एक बार फिर से निर्देश दिए।
दोनों ने ठीक ऐसा ही किया।
‘नाओ! ग्रूम कैन किस दी ब्राइड!; वर वधू को आधिकारिक रूप से चूम सकता है’ मैंने सोचा कि शायद पण्डित ऐसा बोलेगा जैसा इसाइयों में शादी होने के बाद पादरी बोलता है गिरजाघर में। पर...
‘कन्या! अब ये तुम्हारे स्वामी हैं! इनके चरण छुओ! और हमेशा याद रखना कि एक हिन्दू स्त्री के लिए पति ही भगवान होता है! उसका संसार उसके पति के चरणों में ही होता है!’ पण्डित ने गंगा को समझाते हुए कहा।
‘इस लड़की का कोई भरोसा नहीं है! ये तो लड़ाई-दंगा, मारपीट करने वाली झाँसी की रानी है! गंगा ने तो आज तक न तो कभी किसी के हाथ जोड़े, न ही पैर पकड़े फिर भला ये कैसे झुककर देव के पैर छुऐंगे!’ मैंने सोचा....
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