उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
पर ये क्या? मैं हैरान रह गया। जिन्दगी में पहली बार अड़ियल बिगड़ैल गंगा ने पण्डित का कहना एक ही बार में मान लिया था।
‘जी! पण्डित जी!’ गंगा बड़े प्यार से कोयल जैसे मीठी आवाज में बोली और लाल रंग के शादी वाले जोड़े को बड़े ढंग से एक ओर पकड़कर देव के पैर छूने झुकी...
पर... देव ने तुरन्त ही झुककर गंगा के हाथों को पकड़ लिया....।
‘ये आपने क्या किया’ पण्डित ने बड़े अचरज भरे स्वर में आश्चर्य भरी म्रुदा में देव से पूछा।
गंगासागर हलवाई, गंगा की माँ रुकमणि, गायत्री, संगीता व उपस्थित सभी अन्य लोग सकते में आ गये।
‘पण्डित जी! गंगा में हमें अपना भगवान दिखाई देता है! अगर हम गंगा से पैर छुआएंगें तो यह उचित नहीं होगा!’ देव बोला अपनी हमेशा की विनम्र भाषा में मुस्कराकर।
‘पर बेटा! हिन्दुस्तान में तो हर पत्नी अपने पति के पैर छूती है! तभी तो पता चलता है कि स्त्री अपने पति का सम्मान करती है!’ पण्डित ने दलील दी।
‘पण्डित जी! सम्मान का भाव बाहर से नहीं! बल्कि अन्दर से आना चाहिए! भविष्य में गंगा मेरे साथ जैसा भी व्यवहार करेगी उससे स्पष्ट हो जाएगा कि वह मुझे कितना सम्मान देती है!’ देव बोला।
‘भाभी! आपसे कह रहे थे कि देव को ज्यादा मत पढ़ाओ! देखो यही होता है ज्यादा पढ़ने से कि लोग बात-बात पर कानून करने लगते हैं! अब ये लड़का बहू से पैर भी नहीं छुआ रहा है! कल को ये लड़की देव के सिर पर चढ़ जाएगी! एक तो ये पहले से ही बहुत तेज-तर्रार है!’ गीता मामी ने मुँह बनाकर सावित्री से फुसफुसाते हुए कहा।
|