उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
तो अब?’ गंगा ने पूछा अब किस बात पर बात की जाये।
‘तुम्हारे लिए एक गाना गाउँ...?’ देव ने पूछा अपनी हमेशा की मुस्कान के साथ।
‘हाँ!’ गंगा ने बिना मुँह से आवाज निकाले ही सहमति दी। देव ने समय देखा। इस समय तक रात के ढाई बज चुके थे। देव को एक बढि़या गाना याद आया...
रात के ढाई बजे!
कोई शहनाई बजे!
दिल का बाजार लगा...
ये लटक पाई बजे!
चौंके ...चौंके ...चौंके से!
खोये.....खोये से हम...
आँखें डूबी-डूबी सी..
सोये-सोये से हम....
दिल ने कैसी दुर्गत की है?
पहली बार मुहब्बत की है हाँ! हाँ!
अजी! आखिरी बार मुहब्बत की है हाँ! हाँ!
‘आह!... मेरी साँस फूल गयी!’ देव ने बड़ी हड़बड़ी में गाया एक ही साँस में।
गंगा मुस्कुरा उठी। उसने एक बार फिर से जाना कि देव उसके लिए अनगिनत गीत गा सकता है।
अब कमरे का माहौल का सन्नाटा कुछ कम हुआ। दोनों एक बार फिर से बिल्कुल पहले की तरह सहज महसूस कर रहे थे... पहली वाली अवस्था में आ गये।
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